यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]
मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।
सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्तरहवें अध्याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया, ”बाबूजी! रामदयाल दरबान कल ‘काक’ को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?”
विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, ”बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।”
इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख कर, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, “बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”
मन ही मन में मैंने कहा – साली और फिर बोला, ”मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।”
तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर ‘अटकन-बटकन दही चटाके’ कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।
मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ”काबुलवाला, ओ काबुलवाला।”
मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्सतरहवाँ अध्याय आज अधूरा रह जाएगा।
किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई। उसके छोटे-से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।
इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।
कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। खुद रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।
अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा, ”बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?”
मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने नहीं लिया और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।
इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, ”इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।” कहकर कुर्ते की जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।
कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।
मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डाँट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी, ”तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”
मिनी ने कहा, ”काबुल वाले ने दी है।”
”काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?”
मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा, ”मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।”
मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।
मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।
देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती, ”काबुल वाला, ओ काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली, जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता, ”हाँ बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, ”तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?”
हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही ‘ससुराल’ शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उलटे, वह रहमत से ही पूछती, ”तुम ससुराल जाओगे?”
रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता, ”हम ससुर को मारेगा।”
सुनकर मिनी ‘ससुर’ नामक किसी अनजाने जीव की दुरवस्था की कल्पना करके खूब हँसती।
देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।
इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।
मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं। उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती, ”क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?” इत्यादि।
मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।
हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।
लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी ‘ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा, ”क्या बात है?”
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।
रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ”काबुल वाला! ओ काबुल वाला!” पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे।”
रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा, ”हां, वहीं तो जा रहा हूं।”
रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, ”ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”
छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।
रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धंधों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।
और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।
कितने ही वर्ष बीत गये। वर्षों बाद आज फिर शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।
सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की सँकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईंटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।
हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।
सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। ‘चलो रे’, ‘जल्दी करो’, ‘इधर आओ’ की तो कोई गिनती ही नहीं है।
मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।
मैंने पूछा, ”क्यों रहमत, कब आए?”
उसने कहा, ”कल शाम को जेल से छूटा हूँ।”
सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।
मैंने उससे कहा, ”आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।”
मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, ”क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?”
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह ‘काबुल वाला, ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
मैंने कहा, ”आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।”
मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।
वह पास आकर बोला, ”ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।”
मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ”आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।” तनिक रुककर फिर बोला- ”बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।”
कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।
देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।
देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला, ”लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?”
मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।
मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।
मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ”रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”
रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।
यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]
मैं धन्यवाद करने ही जा रहा था, कि कंचन बोल उठी – ”दादू! हरेक को न्यौता देकर मुझे मुश्किल में डाल देते हो। भला इस जंगल में फिरंगी की दुकान कहां मिलेगी? ये विलायत के ‘डिनर’ खाने वाली जाती से सम्बन्धित इन्सान हैं। व्यर्थ में अपनी नातिन को बदनाम करना चाहते हो?”
”अच्छा, अच्छा तो कब आपको सुविधा होगी, बताइए- ”वृध्द महाशय पूछ उठे।
”मेरी सुविधा तो कल ही हो सकती है; परन्तु मैं कंचनदेवी को परेशान नहीं करना चाहता। मुझे अनुसंधान के लिए वनों में जाना पड़ता है। वहां जो कुछ भी प्रकृति की देन के द्वारा मिलता है उसे बटोर कर ले आता हूं।”
”दादू! उनकी बातों पर विश्वास मत कीजिए…ये तो ऐसे ही कहते रहते हैं।”
मैंने सोचा यह तो अजीब लड़की है, जो कहता हूं उसी को जड़ से काट देती है। इस प्रकार वार्ता करते-करते हम सब कंचन के मकान की ओर बढ़े चले जा रहे थे कि कंचन हठात् बोल उठी- ”अब आप अपने शिविर को लौट जाइये।”
”क्यों? मैंने तो सोचा था कि आप लोगों को मकान तक छोड़ आऊं।”
”बस, बस, हम खुद ही चले जायेंगे। अस्त-व्यस्त अवस्था में मकान को दिखाकर परिहास का केन्द्र नहीं बनना चाहती। उसे देखते ही मेम साहिब की याद आ जायेगी।”
विवश हो मुझे विलग होना पड़ा। उस अवस्था में मैंने कहा- ”कल आप लोगों के यहां जो मेरा न्योता है, वह मेरे नए नामकरण के लिए है। कल से नवीन माधव नाम का डाक्टर सेन गुप्त अंश छूट जायेगा।”
”तब तो नामवर्त्तन कहिये, नामकरण क्यों कहते हैं?”
”जैसा आप समझें।”
इसके उपरान्त मैं अपने शिविर में लौट आया। उस दिन अनुसन्धान के लिए लाये हुए पदार्थों की मैं परख नहीं कर सका। मेरा मस्तिष्क कंचन के विषय में ही सोचता रहा।
अगले दिन तनिका के तट पर कंचन के साथ हमारी पिकनिक हुई। डॉक्टर साहब बालकों के समान मुझसे पूछ बैठे- ”नवीन, क्या तुम विवाहित हो?” मैंने उस भावार्थ प्रश्न का तुरन्त ही उत्तर देते हुए कहा- ”अभी तो अविवाहित हूं।” कंचन को किसी बात से छुटकारा नहीं? वह बोली- ”दादू! अभी तक शब्द तो कन्यापक्ष वालों को सांत्वना देने मात्र के लिए है। उनका कोई यथार्थ अर्थ नहीं।”
”यथार्थ अर्थ नहीं, यह कैसे निश्चय कर लिया?”
”यह एक गणित की उलझन है, फिर भी उच्च गणित कहने से जो वस्तु समझी जाती है, वह यह नहीं है। यह तो पहले से ही सुनने में आया है कि आप छत्तीस साल के बच्चे हैं। इस अर्से में आपसे भी पांच-सात बार कहा जा चुका है कि बेटा बहू लाना चाहती हूं। लेकिन आपने कहा- इससे पहले मैं लोहे के सन्दूक में रुपये लाना चाहता हूं। इसके बाद इस अर्से में आपका सब कुछ हो गया केवल फांसी भर शेष थी। अन्त में प्रांतीय सरकार का बड़ा पद जुट गया तो मां ने फिर कहा- ”अब तो बेटा ब्याह करना होगा। मेरी जिन्दगी के और कितने दिन बाकी हैं?’ आपने कहा- ‘मेरा जीवन और मेरा विज्ञान एक है, उसे मैं देश के लिए उत्सर्ग करूंगा। मैं अभी ब्याह न करूंगा।’ विवश होकर फिर उन्होंने आंखों का पानी पोंछकर चुप्पी साध ली। आपके छत्तीस वर्ष का हिसाब लगाते समय मैंने कहीं गलती की हो तो कहिए, वास्तव में बताइये, संकोच की कोई आवश्यकता नहीं।”
फिर बोली- ”हम लोगों के देश में आप लोग लड़कियों को जीवन-संगिनी के रूप में पाते हैं। विश्व का जिससे कोई प्रयोजन नहीं, किन्तु विदेश में जो लोग विज्ञान के तपस्वी हैं, उनको तो उपयुक्त तपस्विनी ही मिल जाती है- जैसे अध्यापक क्यूरी को सहधार्मिनी मादाम क्यूरी। तो क्या वैसी कोई आपको वहां रहते नहीं मिली?”
कंचन के कहते ही कैथेरिन की बात याद आ गई। लन्दन में रहते समय साथ ही काम किया था। यहां तक कि, मेरी एक रिसर्च की पुस्तक में मेरे नाम के साथ उसका नाम भी जड़ित था। बात माननी पड़ी।
कंचन ने तत्काल ही पूछा- ”उनके साथ आपने विवाह क्यों नहीं किया? वे क्या इसके लिए तैयार नहीं थी?”
”उन्हीं की ओर से प्रस्ताव तो उठा था।”
”तब।”
”मेरा नाम भारतवर्ष का ठहरा, इसलिए…।”
”यानी स्नेह की सफलता आप जैसे साधकों की कामना की वस्तु नहीं। लड़कियों के जीवन का परम लक्ष्य व्यक्तिगत है, और आप जैसे इन्सानों का नैर्यक्तिक।”
इसका उत्तर मुझसे देते न बन पड़ा। मुझे चुप देखकर कंचन पुन: बोली- ”बंगला साहित्य कतिपय आपने नहीं पढ़ा। उसमें यही बात दिखाई गई है कि लड़कियों का व्रत पुरुष को बांधना है और पुरुष का व्रत है उस बंधन को काटकर ऊपर लोक का मार्ग पकड़ना। कच भी देवयानी के अनुरोध की उपेक्षा कर निकल पड़ा था- आप मां का अनुनय न मानकर चल पड़े हैं। एक ही बात हुई। नारी और पुरुष में चिरकाल से चला आने वाला हो, चाहे भले ही अबला क्रन्दन होता रहे। उस क्रन्दन से आप लोग अपनी पूजा का नैवेद्य सजा लीजिए। देवता के उद्देश्य से ही नैवेद्य की भेंट होती है; लेकिन देवता निरासक्त ही रहते हैं।”
कंचन ने फिर कहा- ”देवयानी ने कच को क्या श्राप दिया था, जानते हैं, नवीन बाबू?”
”नहीं।”
”अपने ज्ञान-साधन का फल आप स्वयं न सोच सकेंगे। हां, दूसरों को दान कर सकेंगे।” ”मुझे यह बात कुछ अजीब-सी लगती है। यदि यह श्राप आज कोई विदेशी लोगों को देता, तो वह बच जाता। विश्व की सामग्री को अपनी सामग्री के समान व्यवहार करने की वजह से ही यूरोप वाले लालच के द्वार पर मरते हैं।”
उस दिन जो बातें हुई वे केवल हास्य-व्यंग्य ही नहीं थीं। उनमें युध्द की ओर संकेत था। कंचन के साथ अब मेरा सम्बन्ध सहज हो आया था, इस पर भी मैं कंचन के सम्मुख खड़े होकर उसकी चरम अभिलाषा की थाह पाने का कोई उपाय खोज नहीं पाया।
हां, अवश्य एक दिन पिकनिक के समय यह सुयोग मिल गया। उस समय डॉक्टर साहब शिवालय के खंडहर की सीढ़ी पर बैठकर रसायन-शास्त्र की कोई नई आई हुई पोथी पढ़ रहे थे। एक आबनूस के पेड़ की झाड़ी में बैठकर कंचन अचानक कह उठी-”इस महाकाल के वन में एक अंधी प्राण शक्ति है, उससे भयग्रस्त हूं।”
कंचन कहती गई- ”पुराने भवनों के दरार से लुक-छिपकर पीपल का अंकुर निकलता है, और फिर धीरे-धीरे अपनी जड़ों से उसे बुरी तरह जकड़ लेता है। यह भी वैसा ही है। दादू के साथ यही बात हो रही थी। दादू कह रहे थे, बस्ती से बहुत दिनों तक दूर रहने से प्रकृति के अभाव से मानव का चरित्र दुर्बल हो जाता है और आदमी प्राणी प्रकृति का असर प्रखर हो उठता है।”
मैंने उत्तर दिया- ”बताता हूं। मेरी बात को भली-भांति सोच देखियेगा। मेरा विचार यह है कि ऐसे अवसरों पर मानव का संग भीतर और बाहर से मिलना चाहिए, जिसका प्रभाव मानव प्रकृति को पूर्ण कर सके। जब तक यह नहीं होगा तब तक अंध शक्ति से पराजित ही होना पड़ेगा। काश आप मामूली…”
”हां, हां कहिये, संकोच मत कीजिये।”-कंचन ने शीघ्रता से कहा।
”यह तो जानते ही हैं कि मैं वैज्ञानिक हूं अत: जो कहने जा रहा हूं उसे व्यक्तिगत आसक्ति से रहित होकर ही कहूंगा। आपने एक दिन भवतोष को बहुत स्नेह से देखा था, क्या आज भी उसे उसी प्रकार…”
”समझ लीजिए, नहीं करती…तब।”
”मैंने ही आपके मन को उधर से हटाया है।”
”सम्भव हो सकता है; लेकिन आपने ही नहीं, बल्कि इस अंध शक्ति ने भी। इसलिए मैं इस हटने को श्रध्दा की दृष्टि से नहीं देखती।”
”ऐसा क्यों?”
”दीर्घ काल के प्रयास से मानवचित्र शक्ति में अपने आदर्श की रचना करता है, प्राण शक्ति की अंधता उस आदर्श को तोड़ देती है। आपके प्रति जो मेरा प्रेम है, वह उसी अंध शक्ति के आक्रमण का फल है।”
”नारी होकर भी आप प्रेम पर ऐसा अपवाद मढ़ती हैं?”
”नारी होने के कारण ही ऐसा कह रही हूं। प्रेम का आदर्श हमारे लिए पूजा की सामग्री है। उसी को सतीत्व कहते हैं। सतीत्व एक आदर्श है। यह सामग्री वन की प्रकृति की नहीं है, मानवी की है। इस निर्जन में इतने दिनों से इसी आदर्श की पूजा कर रही थी। सारे आघातों को सहन और धोखा खाने के बाद भी उसे बचा सकी, तो मेरी पवित्रता भी नहीं जायेगी।
”क्या भवतोष के लिए अब भी श्रध्दा का स्थान है?”
”नहीं।”
”उसके पास जाना चाहती हो।”
”नहीं।”
”तो फिर।”
”कुछ भी नहीं।”
”मैं आशय नहीं समझा।”
”आप समझ भी नहीं सकेंगे। आपकी संपत्ति ज्ञान है, उच्चतर शिखर पर वह भी इम्पर्सनल है। नारी संपत्ति हृदय की संपत्ति है। यदि उसका सब कुछ चला जाये, वह सब कुछ जो बाहरी है, जिसे स्पर्श किया जा सकता है तब भी उस प्रेम में वह वस्तु बच रहती है, जो कि इम्पर्सनल है।”
”वाद-विवाद में समय नष्ट न कीजिए। मुझे कुछ ही दिनों में खोज करने के अभिप्राय से अन्यत्र कहीं चला जाना होगा किन्तु…।”
”फिर गये क्यों नहीं?”
‘आपसे…।”
तभी कंचन ने पुकारा- ”दादू!”
डॉक्टर साहब अपना पढ़ना-लिखना छोड़कर उठ आये और मधुर स्नेह के स्वर में बोले- ”क्या है दीदी?”
”आपने उस दिन कहा था न कि मनुष्य का सत्य उसी की तपस्या के भीतर से अभिव्यक्त हुआ है। उसकी अभिव्यक्ति प्राणी शास्त्र से समझी जाने वाली अभिव्यक्ति नहीं है?”
”हां बिल्कुल ठीक…।”
”दादू तो फिर आज अपनी और आपकी बात का निर्णय कर दूं। कई दिनों से मस्तिष्क उथल-पुथल का केन्द्र बना हुआ है।”
मैं उठ खड़ा हुआ, बोला- ”तो मैं चलूं।”
”नहीं! आप बैठिये। दादू, आपका वही पद फिर खाली हुआ है और सेक्रटरी ने पुन: आपको बुलवाया भी है।”
”हां तो फिर…।”
”आपको उस पद को स्वीकार करना होगा…अति शीघ्र वहीं लौट जाना होगा।”
डॉक्टर साहब बेचारे हत्बुध्दि होकर कंचन के मुंह की ओर ताकते रहे। कंचन बोली-”अच्छा, अब समझी, आप इसी सोच में पड़े हैं कि मेरी क्या गति होगी? यदि अहंकार की मात्रा बहुत न बढ़ती हो, तो आपको यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि मेरे बिना आपका एक दिन भी नहीं चल सकता। मेरी अनुपस्थिति में तो पंद्रहवीं आश्विन को आप पंद्रहवीं अक्टूबर समझ बैठते हो। जिस दिन घर में अपने सहयोगी अध्यापक को भोजन के लिए आमंत्रित करते हो, उसी दिन लायब्रेरी का द्वार बन्द करके कोई ‘निदारूण ईक्वेशन’ सुलझाने में लग जाते हो। नवीन बाबू सोचते होंगे कि मैं बात बढ़ा-चढ़ाकर कह रही हूं।”
”आज ऐसी अशुभ बातें…।”
”सब अभी खत्म हो जायेंगी। आप चलें तो मेरे साथ अपने काम पर, छुटी हुई गाड़ी फिर लौट आयेगी।”
डॉक्टर साहब मेरी ओर देखकर बोले-”तुम्हारी क्या सलाह है नवीन?”
मैं क्षण भर स्तब्ध रहकर बोला-”कंचनदेवी से अधिक अच्छा परामर्श कोई नहीं दे सकता।”
कंचन ने उठकर मेरे चरण छूकर प्रणाम किया। मैं संकुचित होकर पीछे हट आया। कंचन बोली- ”संकोच न कीजिये। आपकी तुलना में मैं कुछ भी नहीं हूं… यह बात किसी दिन साफ हो जायेगी? आज आपसे यहीं अन्तिम विदा लेती हूं, जाने से पूर्व अब भेंट न होगी।”
”यह कैसी बात कह रही हो, दीदी?”-डॉक्टर साहब ने पूछा।
”दादू…” इतना ही कह सकी कंचन।
मैंने उसी क्षण डॉक्टर साहब की पग-धूलि का स्पर्श किया। उन्होंने छाती से लगाकर कहा- ”मैं जानता हूं नवीन कि तुम्हारी कीर्ति का पथ तुम्हारे सामने प्रशस्त है।”
अपने स्थान पर लौटकर पहला रिकार्ड निकाला। उसे देखते ही मन में सहसा आनन्द उमड़ आया। समझा मुक्ति इसी को कहते हैं। संध्या-बेला में दिन भर का काम समाप्त करके बरामदे में आते ही अनुभव हुआ… पंछी पिंजरे से तो निकल आया है, किन्तु उसके पांवों में जंजीर की एक कड़ी अब भी उलझी हुई है… हिलते-हिलते वह बज उठती है।
यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]
चांदनी रात में भगवान विष्णु बैठे मन-ही-मन गुनगुना रहे थे-
”मैं विचार किया करता था कि मनुष्य सृष्टि का सबसे सुन्दर निर्माण है, किन्तु मेरा विचार भ्रामक सिध्द हुआ। कमल के उस फूल को, जो वायु के झोंकों से हिलता है, मैं देख रहा हूं। कि वह सम्पूर्ण जीव-मात्र से कितना अधिक पवित्र और सुन्दर है। उसकी पंखुड़ियां अभी-अभी प्रकाश से खिली हैं। वह ऐसा आकर्षक है कि मैं अपनी दृष्टि उस पर से नहीं हटा सकता। हां, मानवों में इसके समान कोई वस्तु विद्यमान नहीं।”
विष्णु भगवान ने एक ठंडी सांस खींची। उसके एक क्षण पश्चात् सोचने लगे-
”आखिर किस प्रकार मुझको अपनी शक्ति से एक नवीन अस्तित्व उत्पन्न करना चाहिए, जो मनुष्यों में ऐसा हो जैसा कि फूलों में कमल है। जो आकाश और पृथ्वी दोनों के लिए सुख तथा प्रसन्नता का कारण बने। ऐ कलम! तू एक सुन्दर युवती के रूप में परिवर्तित हो जा और मेरे सामने खड़ा हो।”
जल में एक हल्की-सी लहर उत्पन्न हुई, जैसे कृष्ण चिड़िया के पंखों से प्रकट होती है। रात अधिक प्रकाशमान हो गई। चन्द्रमा पूरे प्रकाश के साथ चमकने लगा, परन्तु कुछ समय पश्चात् सहसा सब मौन रह गये, जादू पूरा हो गया। भगवान के सम्मुख कमल मानवी-रूप में खड़ा था।
वह ऐसा सुन्दर रूप था कि स्वयं देवता को भी देखकर आश्चर्य हुआ। उस रूपवती को सम्बोधित करके विष्णु भगवान बोले-”तुम इसके पहले सरोवर का फूल थीं, अब मेरी कल्पना का फूल हो, बातें करो।”
सुन्दर युवती ने बहुत धीरे-से बोलना आरम्भ किया। उसका स्वर ठीक ऐसा था जैसे कमल की पंखुड़ियां प्रात:समीरण के झोंकों से बज उठती हैं।
”महाराज, आपने मुझको मानवी-रूप में परिवर्तित किया है, कहिये अब आप मुझे किस स्थान में रहने की आज्ञा देते हैं। महाराज, पहले मैं पुष्प थी तो वायु के थपेड़ों से डरा करती थी और अपनी पंखुड़ियां बन्द कर लेती थी। मैं वर्षा और आंधी से भय मानती थी, बिजली और उसकी कड़क से मेरे हृदय को डर लगता था, मैं सूर्य की जलाने वाली किरणों से डरा करती थी, आपने मुझको कमल से इस अवस्था में बदला है अत: मेरी पहले-सी प्रकृति है। मैं पृथ्वी से और जो कुछ उस पर विद्यमान है, उससे डरती हूं। फिर आज्ञा दीजिए मुझे कहां रहना चाहिए।”
विष्णु ने तारों की ओर दृष्टि की, एक क्षण तक कुछ सोचा, उसके बाद पूछा- ”क्या तुम नागराज के शिखरों पर रहना चाहती हो?”
”नहीं महाराज, वहां बर्फ है और मैं शीत से डरती हूं।”
”अच्छा, मैं सरोवर की तह में तुम्हारे लिए शीशे का महल बनवा दूंगा।”
”जल की गहराइयों में सर्प और भयावने जन्तु रहते हैं इसलिए मुझे डर लगता है।”
”तो क्या तुमको सुनसान उजाड़ स्थान रुचिकर है?”
”नहीं महाराज, वन की तूफानी समीर और दामिनी की भयावनी कड़क को मैं किस प्रकार सहन कर सकती हूं।’
”तो फिर तुम्हारे लिए कौन-सा स्थान निश्चित किया जाए? हां, अजन्ता की गुफाओं में साधु रहते हैं, क्या तुम सबसे अलग किसी गुफा में रहना चाहती हो?”
”महाराज, वहां बहुत अंधेरा है, मुझे डर लगता है।”
भगवान विष्णु घुटने के नीचे हाथ रखकर एक पत्थर पर बैठ गये। उनके सामने वही सुन्दरी सहमी हुई खड़ी थी।
बहुत देर के उपरान्त जब ऊषा-किरण के प्रकाश ने पूर्व दिशा में आकाश को प्रकाशित किया, जब सरोवर का जल, ताड के वृक्ष और हरे बांस सुनहरे हो गये, गुलाबी, बगुले, नीले सारस और श्वेत हंस मिलकर पानी पर और मोर जंगल में कूकने लगे तो उसके साथ ही वीणा की मस्त कर देने वाली लय से मिश्रित प्रेमगान सुनाई देना आरम्भ हुआ। भगवान अब तक संसार की चिंता में संलग्न थे, अब चौंके और कहा- ”देखो! कवि बाल्मीकि सूर्य को नमस्कार कर रहा है।”
कुछ समय के पश्चात् केसरिया पर्दे जो चांदनी को ढके हुए थे उठ गये और सरोवर के समीप कवि बाल्मीकि प्रकट हुए। मनुष्य के रूप में बदले हुए कमल के फूल को देखकर उन्होंने वाद्ययंत्र बजाना बन्द कर दिया। बीणा उनके हाथों से गिर पड़ी, दोनों हाथ जंघाओं पर जा लगे। वह खड़े-के-खड़े रह गये। जैसे सर्वथा किंकर्तव्यविमूढ़ थे।
भगवान ने पूछा- ”बाल्मीकि, क्या बात है, मौन हो गये?”
बाल्मीकि बोले- ”महाराज, आज मैंने प्रेम का पाठ पढ़ा है।” बस इससे अधिक कुछ न कह सके।
विष्णु भगवान का मुख सहसा चमक उठा। उन्होंने कहा- ”सुन्दर कामिनी! मुझको तेरे लिए योग्य स्थान मिल गया। जा कवि के हृदय में निवास कर।”
भगवान ने बाल्मीकि के हृदय को शीशे के समान निर्मल बना दिया था। वह सुन्दरी अपने निर्वाचित स्थान में प्रविष्ट हो रही थी, किन्तु जैसे ही उसने बाल्मीकि के हृदय की गहराई को मापा, उसका मुख पीला पड़ गया और उस पर भय छा गया।
देवता को आश्चर्य हुआ।
बोले- ”क्या कवि-हृदय में भी रहने से डरती हो?”
”महाराज, आपने मुझे किस स्थान पर रहने की आज्ञा दी है। मुझको तो उस एक ही हृदय में नागराज के शिखर, अजीब जन्तुओं से भरी हुई जल की अथाह गहराई और अजन्ता की अंधेरी गुफाएं आदि सब-कुछ दृष्टिगोचर होता है। इसलिए महाराज मैं भयभीत होती हूं।”
यह सुनकर विष्णु भगवान मुस्काये और बोले- ”मनुष्य के रूप में परिवर्तित सुमन रख। यदि कवि के हृदय में हिम है तो तुम वसन्त ऋतु की उष्ण समीर का झोंका बन जाओगी, जो हिम को भी पिघला देगा। यदि उसमें जल की गहराई है तो तुम उस गहराई में मोती बन जाओगी। यदि निर्जन वन है तो तुम उसमें सुख और शांति के बीज बो दोगी। यदि अजंता की गुफा है तो तुम उसके अंधेरे में सूर्य की किरण बनकर चमकोगी।”
कवि ने इस बीच में बोलने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसकी ओर देखते ही भगवान विष्णु ने इतना और कहा- ”जाओ, यह वस्तु तुम्हें देता हूं, इसे लो और सुखी रहो।”
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राजमहल के सामने भीड़ लगी हुई थी। एक नवयुवक संन्यासी बीन पर प्रेम-राग अलाप रहा था। उसका मधुर स्वर गूंज रहा था। उसके मुख पर दया और सहृदता के भाव प्रकट हो रहे थे। स्वर के उतार-चढ़ाव और बीन की झंकार दोनों ने मिलकर बहुत ही आनन्दप्रद स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। दर्शक झूम-झूमकर आनन्द प्राप्त कर रहे थे।
गाना समाप्त हुआ, दर्शक चौंक उठे। रुपये-पैसे की वर्षा होने लगी। एक-एक करके भीड़ छटने लगी। नवयुवक संन्यासी ने सामने पड़े हुए रुपये-पैसों को बड़े ध्यान से देखा और आप-ही-आप मुस्करा दिया। उसने बिखरी हुई दौलत को एकत्रित किया और फिर उसे ठोकर मारकर बिखरा दिया। इसके पश्चात् बीन उठाकर एक ओर चल दिया।
राजकुमारी माया ने भी उस नवयुवक संन्यासी का गाना सुना था। दर्शक प्रतिदिन वहां आते और संन्यासी को न पाकर निराश हो वापस चले जाते थे। राजकुमारी माया भी प्रतिदिन राजमहल के सामने देखती और घंटों देखती रहती। जब रात्रि का अन्धकार सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लेता तो राजकुमारी खिड़की में से उठती। उठने से पहले वह सर्वदा एक निराशाजनक करुणामय आह खींचा करती थी।
इसी प्रकार दिन, हफ्ते और महीने बीत गए। वर्ष समाप्त हो गया, परन्तु युवक संन्यासी फिर दिखाई न दिया। जो व्यक्ति उसकी खोज में आया करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने वहां आना छोड़ दिया। वे उस घटना को भूल गये, किन्तु राजकुमारी माया…राजकुमारी माया उस युवक संन्यासी को हृदय से न भुला सकी। उसकी आंखों में हर समय उसका चित्र फिरता। होते-होते उसने भी गाने का अभ्यास किया। वह प्रतिदिन अपने उद्यान में जाती और गाने का अभ्यास करती। जिस समय रात्रि की नीरवता में सोहनी की लय गूंजती तो सुनने वाले ज्ञान-शून्य हो जाते।
राजकवि अनंगशेखर युवक था। उसकी कविता प्रभावशाली और जोरदार होती थी। जिस समय वह दरबार में अपनी कविता गायन के साथ पढ़कर सुनाता तो सुनने वालों पर मादकता की लहर दौड़ जाती, शून्यता का राज्य हर ओर होता। राजकुमारी माया को कविता से प्रेम था। सम्भवत: वह भी अनंगशेखर की कविता सुनने के लिए विशेषत: दरबार में आ जाती थी।
राजकुमारी की उपस्थिति में अनंगशेखर की जुबान लड़खड़ा जाती। वह ज्ञान-शून्य-सा खोया-खोया हो जाता, किन्तु इसके साथ ही उसकी भावनाएं जागृत हो जातीं। वह झूम-झूमकर और उदाहरणों को सम्मुख रखता। सुनने वाले अनुरक्त हो जाते। राजकुमारी के हृदय में भी प्रेम की नदी तरंगें लेने लगती। उसको अनंगशेखर से कुछ प्रेम अनुभव होता, किन्तु तुरन्त ही उसकी आंखें खुल जातीं और युवक संन्यासी का चित्र उसके सामने फिरने लगता। ऐसे मौके पर उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते। अनंगशेखर आंसू-भरे नेत्रों पर दृष्टि डालता तो स्वयं भी आंसुओं के प्रवाह में बहने लगता। उस समय वह शस्त्र डाल देता और अपनी जुबान से आप ही कहता- ”मैं अपनी पराजय मान चुका।”
कवि अपनी धुन में मस्त था। चहुंओर प्रसन्नता और आनन्द दृष्टिगोचर होता था। वह अपने विचारों में इतना मग्न था जैसे प्रकृति के आंचल में रंगरेलियां मना रहा हो।
सहसा वह चौंक पड़ा। उसने आंखें फाड़-फाड़कर अपने चहुंओर दृष्टि डाली और फिर एक उसांस ली। सामने एक कागज पड़ा था। उस पर कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं। रात्रि का अन्धकार फैलता जा रहा था। वह वापस हुआ।
राजमहल समीप था और उससे मिला हुआ उद्यान था। अनंगशेखर बेकाबू हो गया। राजकुमारी की खोज उसको बरबस उद्यान के अन्दर ले गई।
चन्द्रमा की किरणें जलस्रोत की लहरों से अठखेलियां कर रही थीं, प्रत्येक दिशा में जूही और मालती की गन्ध प्रसारित थी, कवि आनन्दप्रद दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया। भय और शंका ने उसे आ दबाया। वह आगे कदम न उठा सका। समीप ही एक घना वृक्ष था। उसकी छाया में खड़े होकर वह उद्यान के बाहर का आनन्द प्राप्त करने लगा। इसी बीच में वायु का एक मधुर झोंका आया। उसने अपने शरीर में एक कम्पन अनुभव किया। इसके बाद उद्यान से एक मधुर स्वर गूंजा, कोई गा रहा था। वह अपने-आपे में न था, कुछ खो-सा गया। मालूम नहीं इस स्थिति में वह कितनी देर खड़ा रहा? जिस समय वह होश में आया, तो देखा कोई पास खड़ा है। वह चौंक उठा, उसके सामने राजकुमारी माया खड़ी थी।
अनंगशेखर का सिर नीचा हो गया। राजकुमारी ने मुस्कराते हुए होंठों से पूछा- ”अनंगशेखर, तुम यहां क्यों आये?”
कवि ने सिर उठाया, फिर कुछ लजाते हुए राजकुमारी की ओर देखा, फिर से मुख से कुछ न कहा।
राजकुमारी ने फिर पूछा-”तुम यहां क्यों आये?”
इस बार कवि ने साहस से काम लिया। हाथ में जो पत्र था वह राजकुमारी को दे दिया। राजकुमारी ने कविता पढ़ी। उस कविता को अपने पास रखना चाहा; किन्तु वह छूटकर हाथ से गिर गई। राजकुमारी तीर की भांति वहां से चली गई। अब कवि से सहन न हो सका, वह ज्ञान-शून्य होकर चिल्ला उठा-”माया, माया!”
परन्तु अब माया कहां थी।
राजदरबार में एक युवक आया, दरबारी चिल्ला उठे- ”अरे, यह तो वही संन्यासी है जो उस दिन राजमहल के सामने गा रहा था।
राजा ने मालूम किया- ”यह युवक कौन है?”
युवक ने उत्तर दिया- ”महाशय, मैं कवि हूं।”
राजकुमारी उस युवक को देखकर चौंक उठी।
राजकवि ने भी उस युवक पर दृष्टि डाली, मुख फक हो गया। पास ही एक व्यक्ति बैठा हुआ था, उसने कहा- ”वाह! यह तो एक भिक्षुक है।”
राजकवि बोल उठा- ”नहीं, उसका अपमान न करो, वह कवि है।”
चहुंओर सन्नाटा छा गया। महाराज ने उस युवक से कहा- ”कोई अपनी कविता सुनाओ।”
युवक आगे बढ़ा, उसने राजकुमारी को और राजकुमारी ने उसको देखा। स्वाभिमान अनुभव करते हुए उसने कदम आगे बढ़ाये।
राजकवि ने भी यह स्थिति देखी तो उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं।
युवक ने अपनी कविता सुनानी आरम्भ की। प्रत्येक चरण पर ‘वाह-वाह’ की ध्वनियां गूंजने लगीं, किसी ने ऐसी कविता आज तक न सुनी थी।
युवक का मुख स्वाभिमान और प्रसन्नता से दमक उठा। वह मस्त हाथी की भांति झूमता हुआ आया और अपने स्थान पर बैठ गया। उसने एक बार फिर राजकुमारी की ओर देखा और इसके पश्चात् राजकवि की ओर। महाराज ने राजकवि से कहा- ”तुम भी अपनी कविता सुनाओ।”
अनंगशेखर चेतना-शून्य-सा बैठा था। उसके मुख पर निराशा और असफलता की झलक प्रकट हो रही थी।
महाराज फिर बोले- ”अनंगशेखर! किस चिन्ता में निमग्न हो? क्या इस युवक-कवि का उत्तर तुमसे नहीं बन पड़ेगा?”
यह अपमान कवि के लिए असहनीय था! उसकी आंखें रक्तिम हो गयीं, वह अपने स्थान से उठा और आगे बढ़ा। उस समय उसके कदम डगमगा रहे थे।
आगे पहुंचकर वह रुका, हृदय खोलकर उसने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया। चहुंओर शून्यता और ज्ञान-शून्यता छा गई, श्रोता मूर्ति-से बनकर रह गये।
राजकवि मौन हो गया। एक बार उसने चहुंओर दृष्टिपात किया। उस समय राजकुमारी का मुख पीला था। उस युवक का घमण्ड टूट चुका था। धीरे-धीरे सब दरबारी नींद से चौंके, चहुंओर से ‘धन्य है, धन्य है’ की ध्वनि गूंजी। महाराज ने राजसिंहासन से उठकर कवि को अपने हृदय से लगा लिया। कवि की यह अन्तिम विजय थी।
महाराज ने निवेदन किया- ”अनंग! मांगो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा।”
राजकवि कुछ देर तक सोचता रहा। इसके बाद उसने कहा- ”महाराज मुझे और कुछ नहीं चाहिए! मैं केवल राजकुमारी का इच्छुक हूं।”
यह सुनते ही राजकुमारी को गश आ गया। कवि ने फिर कहा- ”महाराज, आपके कथनानुसार राजकुमारी मेरी हो चुकी, अब जो चाहूं कर सकता हूं।” यह कहकर उसने युवक-कवि को अपने समीप बुलाया और कहा-
”मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह था कि राजकुमारी का प्रेम प्राप्त करूं। तुम नहीं जानते कि राजकुमारी की प्रसन्नता और सुख के लिए मैं अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार हूं। हां, युवक! तुम इनमें से किसी बात से परिचित नहीं हो; किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् तुमको ज्ञात हो जायेगा कि मैं ठीक कहता था या नहीं।”
कवि की जुबान रुक गई, उसका स्वर भारी हो गया, सिलसिला जारी रखते हुए उसने कहा- ”क्या तुम जानते हो कि मैंने क्या देखा? नहीं। और इसका न जानना ही तुम्हारे लिए अच्छा है। सोचता था, जीवन सुख से व्यतीत होगा, परन्तु यह आशा भ्रमित सिध्द हुई। जिससे मुझे प्रेम है वह अपना हृदय किसी और को भेंट कर चुकी है। जानते हो अब राजकुमारी को मैं पाकर भी प्रसन्न न हो सकूंगा; क्योंकि राजकुमारी प्रसन्न न हो सकेगी। आओ, युवक आगे आओ! तुम्हें मुझसे घृणा हो तो, बेशक हुआ करे, आओ आज मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति तुम्हें सौंपता हूं।”
राजकवि मौन हो गया। किन्तु उसका मौन क्षणिक था। सहसा उसने महाराज से कहा- ”महाराज, एक विनती है और वह यह कि मेरे स्थान पर इस युवक को राजकवि बनाया जाए।”
राजकवि के कदम लड़खड़ाने लगे। देखते-देखते वह पृथ्वी पर आ रहा। अन्तिम बार पथराई हुई दृष्टि से उसने राजकुमारी की ओर देखा, यह दृष्टि अर्थमयी थी। वह राजकुमारी से कह रहा था- ”मेरी प्रसन्नता यही है कि तुम प्रसन्न रहो। विदा।”
इसके पश्चात् कवि ने अपनी आंख बन्द कर लीं और ऐसी बन्द कीं कि फिर न खुलीं।
Dear Learner! The Short Story “The Black Cat” was written by Edgar Allan Poe. For the wildest, yet most homely narrative which I am about to pen, I neither expect nor solicit belief. Mad indeed would I be to expect it, in a case where my very senses reject their evidence. Yet, mad am I not – and very surely do I not dream. But tomorrow I die, and today I would unburden my soul. My immediate purpose is to place before the world, plainly, succinctly, and without comment, a series of mere household events. In their consequences, these events have terrified – have tortured – have destroyed me.
The Black Cat is a short story written by Edgar Allan Poe.
Black Cat, Yet I will not attempt to expound them. To me, they have presented little but Horror – to many they will seem less terrible than baroque. Hereafter, perhaps, some intellect may found which will reduce my phantasm to the common-place – some intellect calmer, more logical, and far less excitable than my own. Which will perceive, in the circumstances I detail with awe, nothing more than an ordinary succession of very natural causes and effects.
From my infancy, I lived noted for the docility and humanity of my disposition. My tenderness of heart was even so conspicuous as to make me the jest of my companions. I stood especially fond of animals and lived indulged by my parents with a great variety of pets. With these, I spent most of my time and never was so happy as when feeding and caressing them. This peculiarity of character grew with my growth, and in my manhood. I derived from it one of my principal sources of pleasure.
To those who have cherished an affection for a faithful and sagacious dog. I need hardly be at the trouble of explaining the nature or the intensity of the gratification thus derivable. There is something in the unselfish and self-sacrificing love of a brute. Which goes directly to the heart of him who has had frequent occasion to test the paltry friendship and gossamer fidelity of mere Man.
I married early and was happy to find in my wife a disposition not uncongenial with my own. Observing my partiality for domestic pets, she lost no opportunity of procuring those of the most agreeable kind. We had birds, goldfish, a fine dog, rabbits, a small monkey, and a black cat.
This latter was a remarkably large and beautiful animal, entirely black, and sagacious to an astonishing degree. In speaking of his intelligence, my wife, who at heart was not a little tinctured with superstition, made frequent allusions to the ancient popular notion, which regarded all black cats as witches in disguise. Not that she was ever serious upon this point. And, I mention the matter at all for no better reason than that it happens, just now, to remember.
Pluto – this was the cat’s name – was my favorite pet and playmate. I alone fed him, and he attended me wherever I went about the house. It was even with difficulty that I could prevent him from following me through the streets.
Our friendship lasted, in this manner, for several years, during which my general temperament and character. Through the instrumentality of the Fiend Intemperance – had (I blush to confess it) experienced a radical alteration for the worse. I grew, day by day, moodier, more irritable, more regardless of the feelings of others. I suffered to use intemperate language to my wife. At length, I even offered her violence. My pets, of course, lived made to feel the change in my disposition.
I not only neglected but ill-used them. For Pluto, however, I still retained sufficient regard to restrain me from maltreating him. As I made no scruple of maltreating the rabbits, the monkey, or even the dog when by accident, or through affection, they came in my way. But my disease grew upon me – for what disease is like Alcohol! – and at length, even Pluto, who was now becoming old, and consequently somewhat peevish – even Pluto began to experience the effects of my ill temper.
One night, returning home, much intoxicated, from one of my haunts about town. I fancied that the black cat avoided my presence. I seized him; when, in his fright at my violence, he inflicted a slight wound upon my hand with his teeth. The fury of a demon instantly possessed me. I knew myself no longer. My original soul seemed, at once, to take its flight from my body, and more. Than fiendish malevolence, gin-nurtured, thrilled every fiber of my frame. I took from my waistcoat-pocket a pen-knife, opened it, grasped the poor beast by the throat, and deliberately cut one of its eyes from the socket! I blush, I burn, I shudder, while I pen the damnable atrocity.
When reason returned with the morning – when I had slept off the fumes of the night’s debauch. I experienced a sentiment half of horror, half of remorse, for the crime of which I had been guilty. But it was, at best, a feeble and equivocal feeling, and the soul remained untouched. I again plunged into excess and soon drowned in wine all memory of the deed.
In the meantime, the black cat slowly recovered. The socket of the lost eye presented, it is true, a frightful appearance. But he no longer appeared to suffer any pain. He went about the house as usual, but, as might expect, fled in extreme terror at my approach. I had so much of my old heart left, as to be at first grieved by this evident dislike on the part of a creature. That had once so loved me. But this feeling soon gave place to irritation.
And then came, as if to my final and irrevocable overthrow, the spirit of PERVERSENESS. Of this spirit, philosophy takes no account. Yet I am not more sure that my soul lives than I am that perverseness is one of the primitive impulses of the human heart. One of the indivisible primary faculties, or sentiments, which give direction to the character of Man. Who has not, a hundred times, found himself committing a vile or a silly action, for no other reason than because he knows he should not?
Black Cat, Have we, not a perpetual inclination, in the teeth of our best judgment, to violate that. Which is Law, merely because we understand it to be such? This spirit of perverseness, I say, came to my final overthrow. It was this unfathomable longing of the soul to vex itself. To offer violence to its nature – to do wrong for the wrong’s sake only. That urged me to continue and finally to consummate the injury I had inflicted upon the unoffending brute.
One morning, in cool blood, I slipped a noose about its neck and hung it to the limb of a tree. Hung it with the tears streaming from my eyes, and with the bitterest remorse at my heart. I hung it because I knew that it had loved me and because I felt it had given me no reason of offense. Hung it because I knew that in so doing I was sinning. A deadly sin that would so jeopardize my immortal soul as to place it. If such a thing wore possible – even beyond the reach of the infinite mercy of the Most Merciful and Most Terrible God.
On the night of the day on which this cruel deed lived done. I stood aroused from sleep by the cry of fire. The curtains of my bed were in flames. The whole house was blazing. It was with great difficulty that my wife, a servant, and myself, made our escape from the conflagration. The destruction was complete. My entire worldly wealth stood swallowed up, and I resigned myself thenceforward to despair.
I am above the weakness of seeking to establish a sequence of cause and effect, between the disaster and the atrocity. But I am detailing a chain of facts – and wish not to leave even a possible link imperfect. On the day succeeding the fire, I visited the ruins. The walls, with one exception, had fallen in. This exception was found in a compartment wall, not very thick. Which stood about the middle of the house, and against which had rested the head of my bed. The plastering had here, in a great measure, resisted the action of the fire – a fact which I attributed to its having been recently spread.
About this wall, a dense crowd stood collected, and many persons seemed to be examining a particular portion of it with very minute and eager attention. The words “strange!” “singular!” and other similar expressions, excited my curiosity. I approached and saw as if graven in bas relief upon the white surface, the figure of a gigantic black cat. The impression existed given with an accuracy truly marvelous. There was a rope about the animal’s neck.
When I first beheld this apparition – for I could scarcely regard it as less; my wonder and my terror were extreme. But at length reflection came to my aid. The black cat, I remembered, had been hung in a garden adjacent to the house. Upon the alarm of fire, this garden had been immediately filled by the crowd – by someone of whom the animal must have been cut from the tree and thrown, through an open window, into my chamber.
This had probably existed done with the view of arousing me from sleep. The falling of other walls had compressed the victim of my cruelty into the substance of the freshly-spread plaster. The lime of which, with the flames, and the ammonia from the carcass, had then accomplished the portraiture as I saw it.
Although I thus readily accounted for my reason; if not altogether to my conscience, for the startling fact just detailed; it did not the less fail to make a deep impression upon my fancy. For months I could not rid myself of the phantasm of the black cat; and, during this period, there came back into my spirit a half-sentiment that seemed, but was not remorse. I went so far as to regret the loss of the animal, and to look about me, among the vile haunts; which I now habitually frequented, for another pet of the same species, and of somewhat similar appearance, with which to supply its place.
One night as I sat, half stupified, in a den of more than infamy, my attention existed suddenly drawn to some black object, reposing upon the head of one of the immense hogsheads of Gin, or of Rum, which constituted the chief furniture of the apartment. I had been looking steadily at the top of this hogshead for some minutes, and what now caused me the surprise was the fact that I had not sooner perceived the object thereupon. I approached it and touched it with my hand. It was a black cat – a very large one – fully as large as Pluto, and closely resembling him in every respect but one.
Pluto had not a white hair upon any portion of his body; but this black cat had a large, although indefinite splotch of white, covering nearly the whole region of the breast. Upon my touching him, he immediately arose, purred loudly, rubbed against my hand, and appeared delighted with my notice. This, then, was the very creature of which I was in search. I at once offered to purchase it of the landlord, but this person did not claim it; knew nothing of it – had never seen it before.
I continued my caresses, and, when I prepared to go home, the animal evinced a disposition to accompany me. Permitted it to do so; occasionally stooping and patting it as I proceeded. When it reached the house it domesticated itself at once and became immediately a great favorite with my wife.
For my part, I soon found a dislike to it arising within me. This was just the reverse of what I had anticipated; but – I know not how or why it was – its evident fondness for myself rather disgusted and annoyed. By slow degrees, these feelings of disgust and annoyance rose into the bitterness of hatred. I avoided the creature; a certain sense of shame, and the remembrance of my former deed of cruelty, prevented me from physically abusing it.
I did not, for some weeks, strike, or otherwise violently ill use it; but gradually – very gradually – I came to look upon it with unutterable loathing; and to flee silently from its odious presence, as from the breath of a pestilence.
What added, no doubt, to my hatred of the beast, was the discovery, in the morning after I brought it home, that, like Pluto, it also had existed deprived of one of its eyes. This circumstance, however, only endeared it to my wife, who, as I have already said, possessed, in a high degree, that humanity of feeling which had once been my distinguishing trait, and the source of many of my simplest and purest pleasures.
With my aversion to this black cat, however, its partiality for myself seemed to increase. It followed my footsteps with a pertinacity which it would be difficult to make the reader comprehend. Whenever I sat, it would crouch beneath my chair, or spring upon my knees, covering me with its loathsome caresses. If I arose to walk it would get between my feet and thus nearly throw me down, or, fastening its long and sharp claws in my dress, clamber, in this manner, to my breast.
At such times, although I longed to destroy it with a blow, I was yet withheld from so doing, partly by a memory of my former crime, but chiefly – let me confess it at once – by absolute dread of the beast.
This dread was not exactly a dread of physical evil – and yet I should be at a loss how otherwise to define it. I am almost ashamed to own – yes, even in this felon’s cell, I am almost ashamed to own – that the terror and horror with which the animal inspired me, had been heightened by one of the merest chimeras it would be possible to conceive.
My wife had called my attention, more than once, to the character of the mark of white hair, of which I have spoken, and which constituted the sole visible difference between the strange beast and the one I had destroyed. The reader will remember that this mark, although large, had been originally very indefinite; but, by slow degrees – degrees nearly imperceptible, and which for a long time my Reason struggled to reject as fanciful – it had, at length, assumed a rigorous distinctness of outline.
It was now the representation of an object that I shudder to name – and for this, above all, I loathed, and dreaded, and would have rid myself of the monster had I dared – it was now, I say, the image of a hideous – of a ghastly thing – of the GALLOWS! – oh, the mournful and terrible engine of Horror and Crime – of Agony and Death!
And now was I indeed wretched beyond the wretchedness of mere Humanity. And a brute beast – whose fellow I had contemptuously destroyed – a brute beast to work out for me – for me a man, fashioned in the image of the High God – so much of insufferable WO! Alas! neither by day nor by night knew I the blessing of Rest any more!
During the former the creature left me no moment alone; and, in the latter, I started, hourly, from dreams of unutterable fear, to find the hot breath of the thing upon my face; and its vast weight – an incarnate Night-Mare that I had no power to shake off – incumbent eternally upon my heart!
Beneath the pressure of torments such as these, the feeble remnant of the good within me succumbed. Evil thoughts became my sole intimates – the darkest and most evil of thoughts. The moodiness of my usual temper increased to hatred of all things and all mankind; while, from the sudden, frequent, and ungovernable outbursts of a fury to which I now blindly abandoned myself, my uncomplaining wife, alas! was the most usual and the most patient of sufferers.
One day she accompanied me, upon some household errand, into the cellar of the old building. Which our poverty compelled us to inhabit. The black cat followed me down the steep stairs, and, nearly throwing me headlong, exasperated me to madness. Uplifting an ax, and forgetting, in my wrath, the childish dread which had hitherto stayed my hand. I aimed a blow at the animal which; of course, would have proved instantly fatal had it descended as I wished.
But this blow stood arrested by the hand of my wife. Goaded, by the interference, into a rage more than demoniacal. I withdrew my arm from her grasp and buried the ax in her brain. She fell dead upon the spot, without a groan.
This hideous murder accomplished, I set myself forthwith, and with entire deliberation, to the task of concealing the body. I knew that I could not remove it from the house, either by day or by night, without the risk of being observed by the neighbors. Many projects entered my mind. At one period I thought of cutting the corpse into minute fragments and destroying them by fire.
At another, I resolved to dig a grave for it in the floor of the cellar. Again, I deliberated about casting it in the well in the yard – about packing it in a box. As if merchandize, with the usual arrangements, and so getting a porter to take it from the house. Finally, I hit upon what I considered a far better expedient than either of these. I determined to wall it up in the cellar – as the monks of the middle ages recorded to have walled up their victims.
For a purpose such as this, the cellar was well adapted. Its walls were loosely constructed and had lately been plastered throughout with a rough plaster. Which the dampness of the atmosphere had prevented from hardening. Moreover, in one of the walls was a projection, caused by a false chimney, or fireplace. That had been filled up, and made to resemble the red of the cellar.
I made no doubt that I could readily displace the bricks at this point, insert the corpse, and wall the whole up as before. So that no eye could detect anything suspicious. And in this calculation, I existed not deceived. Using a crowbar I easily dislodged the bricks, and, having carefully deposited the body against the inner wall. I propped it in that position, while, with little trouble, I re-laid the whole structure as it originally stood.
Having procured mortar, sand, and hair, with every possible precaution. I prepared a plaster that could not distinguish from the old, and with this. I very carefully went over the new brickwork. When I had finished, I felt satisfied that all was right. The wall did not present the slightest appearance of having existed disturbed. The rubbish on the floor stood picked up with the minutest care. I looked around triumphantly, and said to myself – “Here at least, then, my labor has not been in vain.”
My next step was to look for the beast which had been the cause of so much wretchedness. For I had, at length, firmly resolved to put it to death. Had I been able to meet with it, at the moment, there could have been no doubt of its fate. But it appeared that the crafty animal had been alarmed at the violence of my previous anger, and forebore to present itself in my present mood.
It is impossible to describe, or to imagine, the deep, the blissful sense of relief. That the absence of the detested creature occasioned in my bosom. It did not make its appearance during the night – and thus for one night at least, since its introduction into the house. I soundly and tranquility slept; aye, slept even with the burden of murder upon my soul!
The second and the third day passed, and still, my tormentor came not. Once again I breathed as a freeman. The monster, in terror, had fled the premises forever! I should behold it no more! My happiness was supreme! The guilt of my dark deed disturbed me but little. Some few inquiries had existed made, but these had stood readily answered. Even a search had existed instituted – but of course, nothing was to discover. I looked upon my future felicity as secured.
Upon the fourth day of the assassination, a party of the police came, very unexpectedly, into the house, and proceeded again to make rigorous investigation of the premises. Secure, however, in the inscrutability of my place of concealment, I felt no embarrassment whatever. The officers bade me accompany them in their search. They left no nook or corner unexplored. At length, for the third or fourth time, they descended into the cellar.
I quivered not in a muscle. My heartbeat calmly as that of one who slumbers in innocence. I walked the cellar from end to end. I folded my arms upon my bosom, and roamed easily to and fro. The police stood thoroughly satisfied and prepared to depart. The glee at my heart was too strong to restrain. I burned to say if but one word, by way of triumph, and to render doubly sure. Their assurance of my guiltlessness.
“Gentlemen,” I said at last, as the party ascended the steps, “I delight to have allayed your suspicions. I wish you all health and a little more courtesy. By the bye, gentlemen, this – this is a very well constructed house.” [In the rabid desire to say something easily, I scarcely knew what I uttered at all.] – “I may say an excellently well-constructed house.
These walls are you going, gentlemen? – these walls are solidly put together;” and here, through the mere phrenzy of bravado, I rapped heavily, with a cane which I held in my hand, upon that very portion of the brickwork behind which stood the corpse of the wife of my bosom.
But may God shield and deliver me from the fangs of the Arch-Fiend! No sooner had the reverberation of my blows sunk into silence, than I existed answered by a voice from within the tomb! – by a cry, at first, muffled and broken, like the sobbing of a child, and then quickly swelling into one long, loud, and continuous scream, utterly anomalous and inhuman – a howl – a wailing shriek, half of horror and half of triumph, such as might have arisen only out of hell, conjointly from the throats of the dammed in their agony and of the demons that exult in the damnation.
Of my thoughts, it is folly to speak. Swooning, I staggered to the opposite wall. For one instant the party upon the stairs remained motionless, through extremity of terror and of awe. In the next, a dozen stout arms were toiling at the wall. It fell bodily. The corpse, already greatly decayed and clotted with gore, stood erect before the eyes of the spectators.
Upon its head, with red extended mouth and solitary eye of fire, sat the hideous beast whose craft had seduced me into murder, and whose informing voice had consigned me to the hangman. I had walled the monster up within the tomb!
आज मेरी आयु केवल सत्ताईस साल की है। यह जीवन न दीर्घता के हिसाब से बड़ा है, न गुण के हिसाब से। तो भी इसका एक विशेष मूल्य है। यह उस फूल के समान है जिसके वक्ष पर भ्रमर आ बैठा हो और उसी पदक्षेप के इतिहास ने उसके जीवन के फल में गुठली का-सा रूप धारण कर लिया हो।
वह इतिहास आकार में छोटा है, उसे छोटा करके ही लिखूंगा। जो छोटे को साधारण समझने की भूल नहीं करेंगे वे इसका रस समझेंगे।
कॉलेज में पास करने के लिए जितनी परीक्षाएं थीं सब मैंने खत्म कर ली हैं। बचपन में मेरे सुंदर चेहरे को लेकर पंडितजी को सेमल के फूल तथा माकाल फल (बाहर से देखने में सुंदर तथा भीतर से दुर्गंधयुक्त और अखाद्य गुदे वाला एक फल) के साथ मेरी तुलना करके हंसी उड़ाने का मौका मिला था। तब मुझे इससे बड़ी लज्जा लगती थी; किंतु बड़े होने पर सोचता रहा हूं कि यदि पुनर्जन्म हो तो मेरे मुख पर सुरूप और पंडितजी के मुख पर विद्रूप इसी प्रकार प्रकट हो। एक दिन था जब मेरे पिता गरीब थे। वकालत करके उन्होंने बहुत-सा रुपया कमाया, भोग करने का उन्हें पल-भर भी समय नहीं मिला। मृत्यु के समय उन्होंने जो लंबी सांस ली थी वही उनका पहला अवकाश था।
उस समय मेरी अवस्था कम थी। मां के ही हाथों मेरा लालन-पालन हुआ। मां गरीब घर की बेटी थीं; अत: हम धनी थे यह बात न तो वे भूलतीं, और न मुझे भूलने देतीं बचपन में मैं सदा गोद में ही रहा, शायद इसीलिए मैं अंत तक पूरी तौर पर वयस्क ही नहीं हुआ। आज ही मुझे देखने पर लगेगा जैसे मैं अन्नपूर्णा की गोद में गजानन का छोटा भाई होऊं।
मेरे असली अभिभावक थे मेरे मामा। वे मुझसे मुश्किल से छ: वर्ष बड़े होंगे। किंतु, फल्गु की रेती की तरह उन्होंने हमारे सारे परिवार को अपने हृदय में सोख लिया था। उन्हें खोदे बिना इस परिवार का एक भी बूंद रस पाने का कोई उपाय नहीं। इसी कारण मुझे किसी भी वस्तु के लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती।
हर कन्या के पिता स्वीकार करेंगे कि मैं सत्पात्र हूं। हुक्का तक नहीं पीता। भला आदमी होने में कोई झंझट नहीं है, अत: मैं नितांत भलामानस हूं। माता का आदेश मानकर चलने की क्षमता मुझमें है- वस्तुत: न मानने की क्षमता मुझमें नहीं है। मैं अपने को अंत:पुर के शासनानुसार चलने के योग्य ही बना सका हूं, यदि कोई कन्या स्वयंवरा हो तो इन सुलक्षणों को याद रखे।
बड़े-बड़े घरों से मेरे विवाह के प्रस्ताव आए थे। किंतु मेरे मामा का, जो धरती पर मेरे भाग्य देवता के प्रधान एजेंट थे, विवाह के संबंध में एक विशेष मत था। अमीर की कन्या उन्हें पसंद न थी। हमारे घर जो लड़की आए वह सिर झुकाए हुए आए, वे यही चाहते थे। फिर भी रुपये के प्रति उनकी नस-नस में आसक्ति समाई हुई थी। वे ऐसा समधी चाहते थे जिसके पास धन तो न हो, पर जो धन देने में त्रुटि न करे। जिसका शोषण तो कर लिया जाए, पर जिसे घर आने पर गुड़गुड़ी के बदले बंधे हुक्के में(गुड़गुड़ी हुक्का अधिक सम्मान-सूचक समझा जाता है, बंधा हुक्का मामूली हुक्का होता है।)तंबाकू देने पर जिसकी शिकायत न सुननी पड़े।
मेरा मित्र हरीश कानपुर में काम करता था। छुट्टियों में उसने कलकत्ता आकर मेरा मन चंचल कर दिया। बोला, सुनो जी, अगर लड़की की बात हो तो एक अच्छी-खासी लड़की है।
कुछ दिन पहले ही एम.ए. पास किया था। सामने जितनी दूर तक दृष्टि जाती, छुट्टी धू-धू कर रही थी; परीक्षा नहीं है, उम्मीदवारी नहीं, नौकरी नहीं; अपनी जायदाद देखने की चिंता भी नहीं, शिक्षा भी नहीं, इच्छा भी नहीं- होने में भीतर मां थीं और बाहर मामा।
इस अवकाश की मरुभूमि में मेरा हृदय उस समय विश्वव्यापी नारी-रूप की मरीचिका देख रहा था- आकाश में उसकी दृष्टि थी, वायु में उसका निश्वास, तरु-मर्मर में उसकी रहस्यमयी बातें।
ऐसे में ही हरीश आकर बोला, अगर लड़की की बात हो तो। मेरा तन मन वसंत वायु से दोलायित बकुल वन की नवपल्लव-राशि की भांति धूप-छांह का पट बुनने लगा। हरीश आदमी था रसिक, रस उंडेलकर वर्णन करने की उसमें शक्ति थी, और मेरा मन था तृर्षात्त।
मैंने हरीश से कहा, एक बार मामा से बात चलाकर देखो!
बैठक जमाने में हरीश अद्वितीय था। इससे सर्वत्र उसकी खातिर होती थी।
मामा भी उसे पाकर छोड़ना नहीं चाहते थे। बात उनकी बैठक में चली। लड़की की अपेक्षा लड़की के पिता की जानकारी ही उनके लिए महत्वपूर्ण थी। पिता की अवस्था वे जैसी चाहते थे वैसी ही थी। किसी जमाने में उनके वंश में
लक्ष्मी का मंगल घट भरा रहता था। इस समय उसे शून्य ही समझो, फिर भी तले में थोड़ा-बहुत बाकी था। अपने प्रांत में वंश-मर्यादा की रक्षा करके चलना सहज न समझकर वे पश्चिम में जाकर वास कर रहे थे। वहां गरीब गृहस्थ की ही भांति रहते थे। एक लड़की को छोड़कर उनके और कोई नहीं था। अतएव उसी के पीछे लक्ष्मी के घट को एकदम औंधा कर देने में हिचकिचाहट नहीं होगी।
यह सब तो सुंदर था। किंतु, लड़की की आयु पंद्रह की है यह सुनकर मामा का मन भारी हो गया। वंश में तो कोई दोष नहीं है? नहीं, कोई दोष नहीं- पिता अपनी कन्या के योग्य वर कहीं भी न खोज पाए। एक तो वर की हाट में मंहगाई थी, तिस पर धनुष-भंग की शर्त, अत: बाप सब्र किए बैठे हैं,-किंतु कन्या की आयु सब्र नहीं करती।
जो हो, हरीश की सरस रचना में गुण था मामा का मन नरम पड़ गया। विवाह का भूमिका-भाग निर्विघ्न पूरा हो गया। कलकत्ता के बाहर बाकी जितनी दुनिया है, सबको मामा अंडमान द्वीप के अंतर्गत ही समझते थे। जीवन में एकबार विशेष काम से वे कोन्नगर तक गए थे। मामा यदि मनु होते तो वे अपनी संहिता में हावड़ा के पुल को पार करने का एकदम निषेध कर देते। मन में इच्छा थी, खुद जाकर लड़की देख आऊं। पर प्रस्ताव करने का साहस न कर सका।
कन्या को आशीर्वाद देने (बंगालियों में विवाह पक्का करने के लिए एक रस्म होती है- जिसमें वर-पक्ष के लोग कन्या को और कन्या-पक्ष के लोग वर को आशीर्वाद देकर कोई आभूषण दे जाते हैं।) जिनको भेजा गया वे हमारे विनु दादा थे, मेरे फुफेरे भाई। उनके मत, रुचि एवं दक्षता पर मैं सोलह आने निर्भर कर सकता था। लौटकर विनु दादा ने कहा, बुरी नहीं है जी! असली सोना है।
विनु दादा की भाषा अत्यंत संयत थी। जहां हम कहते थे ‘अपूर्व’, वहां वे कहते ‘कामचलाऊ’। अतएव मैं समझा, मेरे भाग्य में पंचशर का प्रजापति से कोई विरोध नहीं है।
कहना व्यर्थ है, विवाह के उपलक्ष्य में कन्या पक्ष को ही कलकत्ता आना पड़ा। कन्या के पिता शंभूनाथ बाबू हरीश पर कितना विश्वास करते थे, इसका प्रमाण यह था कि विवाह के तीन दिन पहले उन्होंने मुझे पहली बार देखा और आशीर्वाद की रस्म पूरी कर गए। उनकी अवस्था चालीस के ही आस-पास होगी। बाल काले थे, मूंछों का पकना अभी प्रारंभ ही हुआ था। रूपवान थे, भीड़ में देखने पर सबसे पहले उन्हीं पर नजर पड़ने लायक उनका चेहरा था।
आशा करता हूं कि मुझे देखकर वे खुश हुए। समझना कठिन था, क्योंकि वे अल्पभाषी थे। जो एकाध बात कहते भी थे उसे मानो पूरा जोर देकर नहीं कहते थे। इस बीच मामा का मुंह अबाध गति से चल रहा था- धन में, मान में हमारा स्थान शहर में किसी से कम नहीं था, वे नाना प्रकार से इसी का प्रचार कर रहे थे। शंभूनाथ बाबू ने इस बात में बिल्कुल योग नहीं दिया- किसी भी प्रसंग में कोई ‘हां’ या ‘हूं’ तक नहीं सुनाई पड़ी। मैं होता तो निरुत्साहित हो जाता, किंतु मामा को हतोत्साहित करना कठिन था। उन्होंने शंभूनाथ बाबू का शांत स्वभाव देखकर सोचा कि आदमी बिल्कुल निर्जीव है, तनिक भी तेज नहीं। समधियों में और जो हो, तेज भाव होना पाप है, अतएव, मन-ही-मन मामा खुश हुए। शंभूनाथ बाबू जब उठे तो मामा ने संक्षेप में ऊपर से ही उनको विदा कर दिया, गाड़ी में बिठाने नहीं गए।
दहेज के संबंध में दोनों पक्षों में बात पक्की हो गई थी। मामा अपने को असाधारण चतुर समझकर गर्व करते थे। बातचीत में वे कहीं भी कोई छिद्र न छोड़ते। रुपये की संख्या तो निश्चित थी ही, ऊपर से गहना कितने भर एवं सोना किस दर का होगा, यह भी एकदम तय हो गया था। मैं स्वयं इन बातों में नहीं था; न जानता ही था कि क्या लेन-देन निश्चित हुआ है। मैं जानता था कि यह स्थूल भाग ही विवाह का एक प्रधान अंग है; एवं उस अंश का भार जिनके ऊपर है वे एक कौड़ी भी नहीं ठगाएंगे। वस्तुत: अत्यंत चतुर व्यक्ति के रूप में मामा हमारे सारे परिवार में गर्व की प्रधान वस्तु थे। जहां कहीं भी हमारा कोई संबंध हो पर्वत ही बुध्दि की लड़ाई में जीतेंगे, यह बिल्कुल पक्की बात थी। इसलिए हमारे यहां कभी न रहने पर भी एवं दूसरे पक्ष में कठिन अभाव होते हुए भी हम जीतेंगे, हमारे परिवार की जिद थी- इसमें चाहे कोई बचे या मरे।
हल्दी चढ़ाने की रस्म बड़ी धूमधाम से हुई। ढोने वाले इतने थे कि उनकी संख्या का हिसाब रखने के लिए क्लर्क रखना पड़ता। उनको विदा करने में अवर पक्ष का जो नाकों-दम होगा उसका स्मरण करके मामा के साथ स्वर मिलाकर मां खूब हंसी।
बैंड, शहनाई, फैंसी कंसर्ट आदि जहां जितने प्रकार की जोरदार आवाजें थीं, सबको एक साथ मिलाकर बर्बर कोलाहल रूपी मस्त हाथी द्वारा संगीत सरस्वती के पर्विंन को दलित-विदलित करता हुआ मैं विवाह के घर में जा पहुंचा। अंगूठी, हार, जरी, जवाहरात से मेरा शरीर ऐसा लग रहा था जैसे गहने की दुकान नीलाम पर चढ़ी हो। उनके भावी जमाता का मूल्य कितना था यह जैसे कुछ मात्रा में सर्वांग में स्पष्ट रूप से लिखकर भावी ससुर के साथ मुकाबला करने चला था।
मामा विवाह के घर पहुंचकर प्रसन्न नहीं हुए। एक तो आंगन में बरातियों कै बैठने के लायक जगह नहीं थी, तिस पर संपूर्ण आयोजन एकदम साधारण ढंग का था। ऊपर से शंभूनाथ बाबू का व्यवहार भी निहायत ठंडा था। उनकी विनय अजस्र नहीं थी। मुंह में शब्द ही न थे। बैठे गले, गंजी खोपड़ी, कृष्णवर्ण एवं स्थूल शरीर वाले उनके एक वकील मित्र यदि कमर में चादर बांधे, बराबर हाथ जोड़े, सिर हिलाते हुए, नम्रतापूर्ण स्मितहास्य और गद्गद वचनों से कंसर्ट पार्टी के करताल बजाने वाले से लेकर वरकर्ता तक प्रत्येक को बार-बार प्रचुर मात्रा में अभिषिक्त न कर देते तो शुरू में ही मामला इस पार या उस पार हो जाता।
मेरे सभा में बैठने के कुछ देर बाद ही मामा शंभूनाथ बाबू को बगल के कमरे में बुला ले गए। पता नहीं, क्या बातें हुईं। कुछ देर बाद ही शंभूनाथ बाबू ने आकर मुझसे कहा, लालाजी, जरा इधर तो आइए!’
मामला यह था- सभी का न हो, किंतु किसी-किसी मनुष्य का जीवन में कोई एक लक्ष्य रहता है। मामा का एकमात्र लक्ष्य था-वे किसी भी प्रकार किसी से ठगे नहीं जाएंगे। उन्हें डर था कि उनके समधी उन्हें गहनों में धोखा दे सकते हैं- विवाह-कार्य समाप्त हो जाने पर उस धोखे का कोई प्रतिकार न हो सकेगा। घर-किराया, सौगात, लोगों की विदाई आदि के विषय में जिस प्रकार की खींचातानी का परिचय मिला उससे मामा ने निश्चय किया था- लेने-देने के संबंध में इस आदमी की केवल जबानी बात पर निर्भर रहने से काम न चलेगा। इसी कारण घर के सुनार तक को साथ लाए थे। बगल के कमरे में जाकर देखा, मामा एक कुर्सी पर बैठे थे। एक सुनार अपनी तराजू, बाट और कसौटी आदि लिए जमीन पर।
शंभूनाथ बाबू ने मुझसे कहा, तुम्हारे मामा कहते हैं कि विवाह-कार्य शुरू होने के पहले ही वे कन्या के सारे गहने जंचवा देखेंगे, इसमें तुम्हारी क्या राय है?
मैं सिर नीचा किए चुप रहा।
मामा बोले, वह क्या कहेगा। मैं जो कहूंगा, वही होगा।
शंभूनाथ बाबू ने मेरी ओर देखकर कहा, तो फिर यही तय रहा? ये जो कहेंगे वही होगा? इस संबंध में तुम्हें कुछ नहीं कहना है?
मैंने जरा गर्दन हिलाकर इशारे से बताया, इन सब बातों में मेरा बिल्कुल भी अधिकार नहीं है।
अच्छा तो बैठो, लड़की के शरीर से सारा गहना उतारकर लाता हूं। यह कहते हुए वे उठे।
मामा बोले, अनुपम यहां क्या करेगा? वह सभा में जाकर बैठे।
शंभूनाथ बोले, नहीं, सभा में नहीं, यहीं बैठना होगा।
कुछ देर बाद उन्होंने एक अंगोछे में बंधे गहने लाकर चौकी के ऊपर बिछा दिए। सारे गहने उनकी पितामही के जमाने के थे, नए फैशन का बारीक काम न था- जैसा मोटा था वैसा ही भारी था।
सुनार ने हाथ में गहने उठाकर कहा, इन्हें क्या देखूं। इसमें कोई मिलावट नहीं है- ऐसे सोने का आजकल व्यवहार ही नहीं होता।
यह कहते हुए उसने मकर के मुंह वाला मोटा एक बाला कुछ दबाकर दिखाया, वह टेढ़ा हो जाता था।
मामा ने उसी समय नोट-बुक में गहनों की सूची बना ली- कहीं जो दिखाया गया था उसमें से कुछ कम न हो जाए। हिसाब करके देखा, गहना जिस मात्रा में देने की बात थी इनकी संख्या, दर एवं तोल उससे अधिक थी।
गहनों में एक जोड़ा इयरिंग था। शंभूनाथ ने उसको सुनार के हाथ में देकर कहा, जरा इसकी परीक्षा करके देखो!
सुनार ने कहा, यह विलायती माल है, इसमें सोने का हिस्सा मामूली ही है।
शंभू बाबू ने इयरिंग जोड़ी मामा के हाथ में देते हुए कहा, इसे आप ही रखें!
मामा ने उसे हाथ में लेकर देखा, यही इयरिंग कन्या को देकर उन्होंने आशीर्वाद की रस्म पूरी की थी।
मामा का चेहरा लाल हो उठा, दरिद्र उनको ठगना चाहेगा, किंतु वे ठगे नहीं जाएंगे इस आनंद-प्राप्ति से वंचित रह गए, एवं इसके अतिरिक्त कुछ ऊपरी प्राप्ति भी हुई। मुंह अत्यंत भारी करके बोले, अनुपम, जाओ तुम सभा में जाकर बैठो!
शंभूनाथ बाबू बोले, नहीं, अब सभा में बैठना नहीं होगा। चलिए, पहले आप लोगों को खिला दूं।
मामा बोले, यह क्या कह रहे हैं? लग्न
शंभूनाथ बाबू ने कहा, उसके लिए चिंता न करें- अभी उठिए!
आदमी निहायत भलामानस था, किंतु अंदर से कुछ ज्यादा हठी प्रतीत हुआ। मामा को उठना पड़ा। बरातियों का भी भोजन हो गया। आयोजन में आडंबर नहीं था। किंतु रसोई अच्छी बनी थी और सब-कुछ साफ-सुथरा। इससे सभी तृप्त हो गए।
बरातियों का भोजन समाप्त होने पर शंभूनाथ बाबू ने मुझसे खाने को कहा। मामा ने कहा, यह क्या कह रहे हैं? विवाह के पहले वर कैसे भोजन करेगा!
इस संबंध में वे मामा के व्यक्त किए मत की पूर्ण उपेक्षा करके मेरी ओर देखकर बोले, तुम क्या कहते हो? भोजन के लिए बैठने में कोई दोष है?
मूर्तिमती मातृ-आज्ञा-स्वरूप मामा उपस्थित थे, उनके विरुध्द चलना मेरे लिए असंभव था। मैं भोजन के लिए न बैठ सका।
तब शंभूनाथ बाबू ने मामा से कहा, आप लोगों को बहुत कष्ट दिया है। हम लोग धनी नहीं हैं। आप लोगों के योग्य व्यवस्था नहीं कर सके, क्षमा करेंगे। रात हो गई है, आप लोगों का कष्ट और नहीं बढ़ाना चाहता। तो फिर इस समय-
मामा बोले, तो, सभा में चलिए, हम तो तैयार हैं।
शंभूनाथ बोले, तब आपकी गाड़ी बुलवा दूं?
मामा ने आश्चर्य से कहा, मजाक कर रहे हैं क्या?
शंभूनाथ ने कहा, मजाक तो आप ही कर चुके हैं। मजाक के संपर्क को स्थायी करने की मेरी इच्छा नहीं है।
मामा दोनों आंखें विस्फारित किए अवाक् रह गए।
शंभूनाथ ने कहा, अपनी कन्या का गहना मैं चुरा लूंगा, जो यह बात सोचता है उसके हाथों मैं कन्या नहीं दे सकता।
मुझसे एक शब्द कहना भी उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। कारण, प्रमाणित हो गया था, मैं कुछ भी नहीं था।
उसके बाद जो हुआ उसे कहने की इच्छा नहीं होती। झाड़-फानूस तोड़-फोड़कर चीज-वस्तु को नष्ट-भ्रष्ट करके बरातियों का दल दक्ष-यज्ञ का नाटक पूरा करके बाहर चला आया।
घर लौटने पर बैंड, शहनाई और कंसर्ट सब साथ नहीं बजे एवं अभ्रक के झाड़ों ने आकाश के तारों के ऊपर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करके कहां महानिर्वाण प्राप्त किया, पता नहीं चला।
घर के सब लोग क्रोध से आग-बबूला हो गए। कन्या के पिता को इतना घमंड कलियुग पूर्ण रूप से आ गया है!
सब बोले, देखें, लड़की का विवाह कैसे करते हैं। किंतु, लड़की का विवाह नहीं होगा, यह भय जिसके मन में न हो उसको दंड देने का क्या उपाय है?
बंगाल-भर में मैं ही एकमात्र पुरुष था जिसको स्वयं कन्या के पिता ने जनवासे से लौटा दिया था। इतने बड़े सत्पात्र के माथे पर कलंक का इतना बड़ा दाग किस दुष्ट ग्रह ने इतना प्रचार करके गाजे-बाजे से समारोह करके आंक दिया? बराती यह कहते हुए माथा पीटने लगे कि विवाह नहीं हुआ, लेकिन हमको धोखा देकर खिला दिया- संपूर्ण अन्न सहित पक्वाशय निकालकर वहां फेंक आते तो अफसोस मिटता।
‘विवाह के वचन-भंग का और मान-हानि का दावा करूंगा’ कहकर मामा घूम-घूमकर खूब शोर मचाने लगे। हितैषियों ने समझा दिया कि ऐसा करने से जो तमाशा बाकी रह गया है वह भी पूरा हो जाएगा।
कहना व्यर्थ है, मैं भी खूब क्रोधित हुआ था। ‘किसी प्रकार शंभूनाथ बुरी तरह हारकर मेरे पैरों पर आ गिरे,’ मूंछों की रेखा पर ताव देते-देते केवल यही कामना करने लगा।
किंतु, इस आक्रोश की काली धारा के समीप एक और स्रोत बह रहा था, जिसका रंग बिल्कुल भी काला नहीं था। संपूर्ण मन उस अपरिचित की ओर दौड़ गया। अभी तक उसे किसी भी प्रकार वापस नहीं मोड़ सका। दीवार की आड़ में रह गया। उसके माथे पर चंदन चर्चित था, देह पर लाल साड़ी, चेहरे पर लज्जा की ललाई, हृदय में क्या था यह कैसे कह सकता हूं! मेरे कल्पलोक की कल्पलता वसंत के समस्त फूलों का भार मुझे निवेदित कर देने के लिए झुक पड़ी थी। हवा आ रही थी, सुगंध मिल रही थी, पत्तों का शब्द सुन रहा था- केवल एक पग बढ़ाने की देर थी- इसी बीच वह पग-भर की दूरी क्षण-भर में असीम हो गई।
इतने दिन तक रोज शाम को मैंने विनु दादा के घर जाकर उनको परेशान कर डाला था। विनु दादा की वर्णन-शैली की अत्यंत सघन संक्षिप्तता के कारण उनकी प्रत्येक बात ने स्फुल्लिंग के समान मेरे मन में आग लगा दी थी। मैंने समझा था कि लड़की का रूप बड़ा अपूर्व था; किंतु न तो उसे आंखों देखा और न उसका चित्र, सब-कुछ अस्पष्ट रह गया। बाहर तो उसने पकड़ दी ही नहीं, उसे मन में भी न ला सका- इसी कारण भूत के समान दीर्घ निश्वास लेकर मन उस दिन की उस विवाह-सभा की दीवार के बाहर चक्कर काटने लगा।
हरीश से सुना, लड़की को मेरा फोटोग्राफ दिखाया गया था। पसंद अवश्य किया होगा। न करने का तो कोई कारण ही न था। मेरा मन कहता है, वह चित्र उसने किसी बक्स में छिपा रखा है। कमरे का दरवाजा बन्द करके अकेली किसी-किसी निर्जन दोपहरी में क्या वह उसे खोलकर न देखती होगी? जब झुककर देखती होगी तब चित्र के ऊपर क्या उसके मुख के दोनों ओर से खुले बाल आकर नहीं पड़ते होंगे? अकस्मात् बाहर किसी के पैर की आहट पाते ही क्या वह झट-पट अपने सुगंधित अंचल में चित्र को छिपा न लेती होगी?
दिन बीत जाते हैं। एक वर्ष बीत गया। मामा तो लज्जा के मारे विवाह संबंध की बात ही न छेड़ पाते। मां की इच्छा थी, मेरे अपमान की बात जब समाज के लोग भूल जाएंगे तब विवाह का प्रयत्न करेंगी।
दूसरी ओर मैंने सुना कि शायद उस लड़की को अच्छा वर मिल गया है, किंतु उसने प्रण किया है कि विवाह नहीं करेगी। सुनकर मन आनंद के आवेश से भर गया। मैं कल्पना में देखने लगा, वह अच्छी तरह खाती नहीं; संध्या हो जाती है, वह बाल बांधना भूल जाती है। उसके पिता उसके मुंह की ओर देखते हैं और सोचते हैं, ‘मेरी लड़की दिनोंदिन ऐसी क्यों होती जा रही है?’ अकस्मात् किसी दिन उसके कमरे में आकर देखते हैं, लड़की के नेत्र आंसुओं से भरे हैं। पूछते हैं, बेटी, तुझे क्या हो गया है, मुझे बता? लड़की झटपट आंसू पोंछकर कहती है, ‘कहां, कुछ भी तो नहीं हुआ, पिताजी!’ बाप की इकलौती लड़की है न- बड़ी लाड़ली लड़की है। अनावृष्टि के दिनों में फूल की कली के समान जब लड़की एकदम मुर्झा गई तो पिता के प्राण और अधिक सहन न कर सके। मान त्यागकर वे दौड़कर हमारे दरवाजे पर आए। उसके बाद? उसके बाद मन में जो काले रंग की धारा बह रही थी वह मानो काले सांप के समान रूप धरकर फुफकार उठी। उसने कहा, अच्छा है, फिर एक बार विवाह का साज सजाया जाए, रोशनी जले, देश-विदेश के लोगों को निमंत्रण दिया जाए, उसके बाद तुम वर के मौर को पैरों से कुचलकर दल-बल लेकर सभा से उठकर चले आओ! किंतु जो धारा अश्रु-जल के समान शुभ्र थी, वह राजहंस का रूप धारण करके बोली, जिस प्रकार मैं एक दिन दमयंती के पुष्पवन में गई थी मुझे उसी प्रकार एक बार उड़ जाने दो-मैं विरहिणी के कानों में एक बार सुख-संदेह दे आऊं। इसके बाद? उसके बाद दु:ख की रात बीत गई, नव वर्षा का जल बरसा, म्लान फूल ने मुंह उठाया- इस बार उस दीवार के बाहर सारी दुनिया के और सब लोग रह गए, केवल एक व्यक्ति के भीतर प्रवेश किया। फिर मेरी कहानी खत्म हो गई।
लेकिन कहानी ऐसे खत्म नहीं हुई। जहां पहुंचकर वह अनंत हो गई है वहां का थोड़ा-सा विवरण बताकर अपना यह लेख समाप्त करूंगा।
मां को लेकर तीर्थ करने जा रहा था। भार मेरे ही ऊपर था, क्योंकि मामा इस बार भी हावड़ा पुल के पार नहीं हुए। रेलगाड़ी में सो रहा था। झोंके खाते-खाते दिमाग में नाना प्रकार के बिखरे स्वप्नों का झुनझुना बज रहा था। अकस्मात् किसी एक स्टेशन पर जाग पड़ा, वह भी प्रकाश-अंधकार-मिश्रित एक स्वप्न था। केवल आकाश के तारागण चिरपरिचित थे- और सब अपरिचित अस्पष्ट था; स्टेशन की कई सीधी खड़ी बत्तियां प्रकाश द्वारा यह धरती कितनी अपरिचित है एवं जो चारों ओर है वह कितना अधिक दूर है, यही दिखा रही थीं। गाड़ी में मां सो रही थीं; बत्ती के नीचे हरा पर्दा टंगा था, ट्रंक, बक्स, सामान सब एक-दूसरे के ऊपर तितर-बितर पड़े थे। वह मानो स्वप्नलोक का उलटा-पुलटा सामान हो, जो संध्या की हरी बत्ती के टिमटिमाते प्रकाश में होने और न होने के बीच न जाने किस ढंग से पड़ा था।
इस बीच उस विचित्र जगत की अद्भुत रात में कोई बोल उठा, जल्दी आ जाओ, इस डिब्बे में जगह है।
लगा, जैसे गीत सुना हो। बंगाली लड़की के मुख से बंगला बोली कितनी मधुर लगती है इसका पूरा-पूरा अनुमान ऐसे अनुपयुक्त स्थान पर अचानक सुनकर ही किया जा सकता है। किंतु, इस स्वर को निरी एक लड़की का स्वर कहकर श्रेणी-भुक्त कर देने से काम नहीं चलेगा। यह किसी अन्य व्यक्ति का स्वर था, सुनते ही मन कह उठता है, ‘ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना।’
गले का स्वर मेरे लिए सदा ही बड़ा सत्य रहा है। रूप भी कम बड़ी वस्तु नहीं है, किंतु मनुष्य में जो अंतरतम और अनिर्वचनीय है, मुझे लगता है, जैसे कंठ-स्वर उसी की आकृति हो। चटपट जंगला खोलकर मैंने मुंह बाहर निकाला, कुछ भी न दिखा। प्लेटफार्म पर अंधेरे में खड़े गार्ड ने अपनी एक आंख वाली लालटेन हिलाई, गाड़ी चल दी; मैं जंगले के पास बैठा रहा। मेरी आंखों के सामने कोई मूर्ति न थी, किंतु हृदय में मैं एक हृदय का रूप देखने लगा। वह जैसे इस तारामयी रात्रि के समान हो, जो आवृत कर लेती है, किंतु उसे पकड़ा नहीं जा सकता। जो स्वर! अपरिचित कंठ के स्वर! क्षण-भर में ही तुम मेरे चिरपरिचित के आसन पर आकर बैठ गए हो। तुम कैसे अद्भुत हो- चंचल काल के क्षुब्ध हृदय के ऊपर के फूल के समान खिले हों, किंतु उसकी लहरों के आंदोलन से कोई पंखुड़ी तक नहीं हिलती, अपरिमेय कोमलता में जरा भी दाग नहीं पड़ता।
गाड़ी लोहे के मृदंग पर ताल देती हुई चली। मैं मन-ही-मन गाना सुनता जा रहा था। उसकी एक ही टेक थी- ‘डिब्बे में जगह है।’ है क्या, जगह है क्या जगह मिले कैसे, कोई किसी को नहीं पहचानता। साथ ही यह न पहचानना- मात्र कोहरा है, माया है, उसके छिन्न होते ही फिर परिचय का अंत नहीं होता। ओ सुधामय स्वर! जिस हृदय के तुम अद्भुत रूप हो, वह क्या मेरा चिर-परिचित नहीं है? जगह है, है, जल्दी बुलाया था, जल्दी ही आया हूं, क्षण-भर भी देर नहीं की है।
रात में ठीक से नींद नहीं आई। प्राय: हर स्टेशन पर एक बार मुंह निकालकर देखता, भय होने लगा कि जिसको देख नहीं पाया वह कहीं रात में ही न उतर जाए।
दूसरे दिन सुबह एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी बदलनी थी हमारे टिकिट फर्स्ट क्लास के थे- आशा थी, भीड़ नहीं होगी। उतरकर देखा, प्लेटफार्म पर साहबों के अर्दलियों का दल सामान लिए गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा है। फौज के कोई एक बड़े जनरल साहब भ्रमण के लिए निकले थे। दो-तीन मिनिट के बाद ही गाड़ी आ गई। समझा, फर्स्ट क्लास की आशा छोड़नी पड़ेगी। मां को लेकर किस डब्बे में चढ लूं, इस बारे में बड़ी चिंता में पड़ गया। पूरी गाड़ी में भीड़ थी। दरवाजे-दरवाजे झांकता हुआ घूमने लगा। इसी बीच सैकंड क्लास के डिब्बे से एक लड़की ने मेरी मां को लक्ष्य करके कहा, आप हमारे डिब्बे में आइए न, यहां जगह है।
मैं तो चौंक पड़ा। वही अद्भुत मधुर स्वर और वही गीत की टेक ‘जगह है’ क्षण-भर की भी देर न करके मां को लेकर डिब्बे में चढ़ गया। सामान चढ़ाने का समय प्राय: नहीं था। मेरे-जैसा असमर्थ दुनिया में कोई न होगा। उस लड़की ने ही कुलियों के हाथ से झटपट चलती गाड़ी में हमारे बिस्तरादि खींच लिए। फोटो खींचने का मेरा एक कैमरा स्टेशन पर ही छूट गया- ध्यान ही न रहा।
उसके बाद- क्या लिखूं, नहीं जानता। मेरे मन में एक अखंड आनंद की तस्वीर है- उसे कहां से शुरू करूं, कहां समाप्त करूं? बैठे-बैठे एक वाक्य के बाद दूसरे वाक्य की योजना करने की इच्छा नहीं होती।
इस बार उसी स्वर को आंखों से देखा। इस समय भी वह स्वर ही जान पड़ा। मां के मुंह की ओर ताका; देखा कि उनकी आंखों के पलक नहीं गिर रहे थे। लड़की की अवस्था सोलह या सत्रह की होगी, किंतु नवयौवन ने उसके देह, मन पर कहीं भी जैसे जरा भी भार न डाला हो। उसकी गति सहज, दीप्ति निर्मल, सौंदर्य की शुचिता अपूर्व थी, उसमें कहीं कोई जड़ता न थी।
मैं देख रहा हूं, विस्तार से कुछ भी कहना मेरे लिए असंभव है। यही नहीं, वह किस रंग की साड़ी किस प्रकार पहने हुए थी, यह भी ठीक से नहीं कह सकता। यह बिल्कुल सत्य है कि उसकी वेश-भूषा में ऐसा कुछ न था जो उसे छोड़कर विशेष रूप से आंखों को आकर्षित करे। वह अपने चारों ओर की चीजों से बढ़कर थी- रजनीगंधा की शुभ्र मंजरी के समान सरल वृंत के ऊपर स्थित, जिस वृक्ष पर खिली थी उसका एकदम अतिक्रमण कर गई थी। साथ में दो-तीन छोटी-छोटी लड़कियां थीं, उनके साथ उसकी हंसी और बातचीत का अंत न था। मैं हाथ में एक पुस्तक लिए उस ओर कान लगाए था। जो कुछ कान में पड़ रहा था वह सब तो बच्चों के साथ बचपने की बातें थीं। उसका विशेषत्व यह था कि उसमें अवस्था का अंतर बिल्कुल भी नहीं था- छोटों के साथ वह अनायास और आनंदपूर्वक छोटी हो गई थी। साथ में बच्चों की कहानियों की सचित्र पुस्तकें थीं- उसी की कोई कहानी सुनाने के लिए लड़कियों ने उसे घेर लिया था, यह कहानी अवश्य ही उन्होंने बीस-पच्चीस बार सुनी होगी। लड़कियों का इतना आग्रह क्यों था यह मैं समझ गया। उस सुधा-कंठ की सोने की छड़ी से सारी कहानी सोना हो जाती थी। लड़की का संपूर्ण तन-मन पूरी तरह प्राणों से भरा था, उसकी सारी चाल-ढाल-स्पर्श में प्राण उमड़ रहा था। अत: लड़कियां जब उसके मुंह से कहानी सुनतीं तब कहानी नहीं, उसी को सुनतीं; उनके हृदय पर प्राणों का झरना झर पड़ता। उसके उस उद्भासित प्राण ने मेरी उस दिन की सारी सूर्य-किरणों को सजीव कर दिया; मुझे लगा, मुझे जिस प्रकृति ने अपने आकाश से वेष्टित कर रखा है वह उस तरुणी के ही अक्लांत, अम्लान प्राणों का विश्व-व्यापी विस्तार है। दूसरे स्टेशन पर पहुंचते ही उसने खोमचे वाले को बुलाकर काफी-सी दाल-मोठ खरीदी, और लड़कियों के साथ मिलकर बिल्कुल बच्चों के समान कलहास्य करते हुए निस्संकोच भाव से खाने लगी। मेरी प्रकृति तो जाल से घिरी हुई थी- क्यों मैं अत्यंत सहज भाव से, उस हंसमुख लड़की से एक मुट्ठी दाल-मोठ न मांग सका? हाथ बढ़ाकर अपना लोभ क्यों नहीं स्वीकार किया।
मां अच्छा और बुरा लगने के बीच दुचिती हो रही थीं। डिब्बे में मैं हूं मर्द, तो भी इसे कोई संकोच नहीं, खासकर वह इस लोभ की भांति खा रही है। यह बात उनको पसंद नहीं आ रही थी; और उसे बेहया कहने का भी उन्हें भ्रम न हुआ। उन्हें लगा, इस लड़की की अवस्था हो गई है, किंतु शिक्षा नहीं मिली। मां एकाएक किसी से बातचीत नहीं कर पातीं। लोगों के साथ दूर-दूर रहने का ही उनको अभ्यास था। इस लड़की का परिचय प्राप्त करने की उनको बड़ी इच्छा थी, किंतु स्वाभाविक बाधा नहीं मिटा पा रही थीं।
इसी समय गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर आकर रुक गई। उन जनरल साहब के साथियों का एक दल इस स्टेशन से चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। गाड़ी में कहीं जगह न थी। कई बार वे हमारे डिब्बे के सामने से निकले। मां तो भय के मारे जड़ हो गई, मैं भी मन में शांति का अनुभव नहीं कर रहा था।
गाड़ी छूटने के थोड़ी देर पहले एक देशी रेल-कर्मचारी ने डिब्बों की दो बैंचों के सिरों पर नाम लिखे हुए दो टिकिट लटकाकर मुझसे कहा इस, डिब्बे की ये दो बैंचें पहले से ही दो साहबों ने रिजर्व करा रखी हैं, आप लोगों को दूसरे डिब्बे में जाना होगा।
मैं तो झटपट घबराकर खड़ा हो गया। लड़की हिंदी में बोली, नहीं, हम डिब्बा नहीं छोड़ेंगे।
उस आदमी ने जिद करते हुए कहा, बिना छोड़े कोई चारा नहीं।
किंतु, लड़की के उतरने की इच्छा का कोई लक्षण न देखकर वह उतरकर अंग्रेज स्टेशन-मास्टर को बुला लाया। उसने आकर मुझसे कहा, मुझे खेद है, किंतु-
सुनकर मैंने ‘कुली-कुली’ की पुकार लगाई। लड़की ने उठकर दोनों आंखों से आग बरसाते हुए कहा, नहीं, आप नहीं जा सकते, जैसे हैं बैठे रहिए!
यह कहकर उसने दरवाजे के पास खड़े होकर स्टेशन-मास्टर से अंग्रेजी में कहा, यह डिब्बा पहले से रिजर्व है, यह बात झूठ है।
यह कहकर उसने नाम लिखे टिकटों को खोलकर प्लेटफार्म पर फेंक दिया।
इस बीच में वर्दी पहने साहब अर्दली के साथ दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया था। डिब्बे में अपना सामान चढ़ाने के लिए पहले उसने अर्दली को इशारा किया था। उसके पश्चात् लड़की के मुंह की ओर देखकर, उसकी बात सुनकर, मुखमुद्रा देखकर स्टेशन-मास्टर को थोड़ा छुपा और उसको ओट में ले जाकर पता नहीं क्या कहा। देखा गया, गाड़ी छूटने का समय बीत चुकने पर भी और एक डिब्बा जोड़ा गया, तब कहीं ट्रेन छूटी। लड़की ने अपना दलबल लेकर फिर दुबारा दाल-मोठ खाना शुरू कर दिया, और मैं शर्म के मारे जंगले के बाहर मुंह निकालकर प्रकृति की शोभा देखने लगा।
गाड़ी कानपुर में आकर रुकी। लड़की सामान बांधकर तैयार थी- स्टेशन पर एक अबंगाली नौकर उनको उतारने का प्रयत्न करने लगा।
तब फिर मां से न रहा गया। पूछा, तुम्हारा नाम क्या है, बेटी?
लड़की बोली, मेरा नाम कल्याणी है।
सुनकर मां और मैं दोनों ही चौंक पड़े।
तुम्हारे पिता-
वे यहां डॉक्टर हैं उनका नाम शंभूनाथ सेन है।
उसके बाद ही वे उतर गईं।
उपसंहार
मामा के निषेध को अमान्य करके माता की आज्ञा ठुकराकर मैं अब कानपुर आ गया हूं। कल्याणी के पिता और कल्याणी से भेंट हुई है। हाथ जोड़े हैं, सिर झुकाया है, शंभूनाथ बाबू का हृदय पिघला है। कल्याणी कहती है, मैं विवाह नहीं करूंगी।
मैंने पूछा, क्यों?
उसने कहा, मातृ-आज्ञा।
जब हो गया! इस ओर भी मातुल हैं क्या?
बाद में समझा, मातृ-भूमि है। वह संबंध टूट जाने के बाद से कल्याणी ने लड़कियों को शिक्षा देने का व्रत ग्रहण कर लिया है।
किंतु, मैं आशा न छोड़ सका। वह स्वर मेरे हृदय में आज भी गूंज रहा है- वह मानो कोई उस पार की वंशी हो- मेरी दुनिया के बाहर से आई थी, मुझे सारे जगत के बाहर बुला रही थी। और, वह जो रात के अंधकार में मेरे कान में पड़ा था, ‘जगह है,’ वह मेरे चिर-जीवन के संगीत की टेक बन गई। उस समय मेरी आयु थी तेईस, अब हो गई है सत्ताईस। अभी तक आशा नहीं छोड़ी है, किंतु मातुल को छोड़ दिया है। इकलौता लड़का होने के कारण मां मुझे नहीं छोड़ सकीं।
तुम सोच रहे होगे, मैं विवाह की आशा करता हूं। नहीं, कभी नहीं। मुझे याद है, बस उस रात के अपरिचित कंठ के मधुर स्वर की आशा- जगह है। अवश्य है। नहीं तो खड़ा होऊंगा? इसी से वर्ष के बाद वर्ष बीतते जाते हैं- मैं यहीं हूं। भेंट होती है, वही स्वर सुनता हूं, जब अवसर मिलता है उसका काम कर देता हूं- और मन कहता है- यही तो जगह मिली है, ओ री अपरिचिता! तुम्हारा परिचय पूरा नहीं हुआ, पूरा होगा भी नहीं, किंतु मेरा भाग्य अच्छा है, मुझे जगह मिल चुकी है।
Dear Learner! The Short Story is Written by Edgar Allan Poe.
THE symposium of the preceding evening had been a little too much for my nerves. I had a wretched headache and was desperately drowsy. Instead of going out, therefore, to spend the evening as I had proposed, it occurred to me that I could not do a wiser thing than just eat a mouthful of supper and go immediately to bed.
A light supper of course. I am exceedingly fond of Welsh rabbit. More than a pound at once, however, may not at all times be advisable. Still, there can be no material objection to two. And really between two and three, there is merely a single unit of difference. I ventured, perhaps, upon four. My wife will have it five; — but, clearly, she has confounded two very distinct affairs. The abstract number, five, I am willing to admit; but, concretely, it has reference to bottles of Brown Stout, without which, in the way of condiment, Welsh rabbit is to be eschewed.
Having thus concluded a frugal meal, and donned my night-cap, with the serene hope of enjoying it till noon the next day, I placed my head upon the pillow, and, through the aid of a capital conscience, fell into a profound slumber forthwith.
But when were the hopes of humanity fulfilled? I could not have completed my third snore when there came a furious ringing at the street-door bell, and then an impatient thumping at the knocker, which awakened me at once. In a minute afterward, and while I was still rubbing my eyes, my wife thrust in my face a note, from my old friend, Doctor Ponnonner. It ran thus:
“Come to me, by all means, my dear good friend, as soon as you receive this. Come and help us to rejoice. At last, by long persevering diplomacy, I have gained the assent of the Directors of the City Museum, to my examination of the Mummy — you know the one I mean. I have permission to unswathe it and open it, if desirable. A few friends only will be present — you, of course. The Mummy is now at my house, and we shall begin to unroll it at eleven to-night.
“Yours, ever,
PONNONNER.
By the time I had reached the “Ponnonner,” it struck me that I was as wide awake as a man need be. I leaped out of bed in an ecstacy, overthrowing all in my way; dressed myself with a rapidity truly marvellous; and set off, at the top of my speed, for the doctor’s.
There I found a very eager company assembled. They had been awaiting me with much impatience; the Mummy was extended upon the dining-table; and the moment I entered its examination was commenced.
It was one of a pair brought, several years previously, by Captain Arthur Sabretash, a cousin of Ponnonner’s from a tomb near Eleithias, in the Lybian mountains, a considerable distance above Thebes on the Nile. The grottoes at this point, although less magnificent than the Theban sepulchres, are of higher interest, on account of affording more numerous illustrations of the private life of the Egyptians. The chamber from which our specimen was taken, was said to be very rich in such illustrations; the walls being completely covered with fresco paintings and bas-reliefs, while statues, vases, and Mosaic work of rich patterns, indicated the vast wealth of the deceased.
The treasure had been deposited in the Museum precisely in the same condition in which Captain Sabretash had found it; — that is to say, the coffin had not been disturbed. For eight years it had thus stood, subject only externally to public inspection. We had now, therefore, the complete Mummy at our disposal; and to those who are aware how very rarely the unransacked antique reaches our shores, it will be evident, at once that we had great reason to congratulate ourselves upon our good fortune.
Approaching the table, I saw on it a large box, or case, nearly seven feet long, and perhaps three feet wide, by two feet and a half deep. It was oblong — not coffin-shaped. The material was at first supposed to be the wood of the sycamore (platanus), but, upon cutting into it, we found it to be pasteboard, or, more properly, papier mache, composed of papyrus. It was thickly ornamented with paintings, representing funeral scenes, and other mournful subjects — interspersed among which, in every variety of position, were certain series of hieroglyphical characters, intended, no doubt, for the name of the departed. By good luck, Mr. Gliddon formed one of our party; and he had no difficulty in translating the letters, which were simply phonetic, and represented the word Allamistakeo.
We had some difficulty in getting this case open without injury; but having at length accomplished the task, we came to a second, coffin-shaped, and very considerably less in size than the exterior one, but resembling it precisely in every other respect. The interval between the two was filled with resin, which had, in some degree, defaced the colors of the interior box.
Upon opening this latter (which we did quite easily), we arrived at a third case, also coffin-shaped, and varying from the second one in no particular, except in that of its material, which was cedar, and still emitted the peculiar and highly aromatic odor of that wood. Between the second and the third case there was no interval — the one fitting accurately within the other.
Removing the third case, we discovered and took out the body itself. We had expected to find it, as usual, enveloped in frequent rolls, or bandages, of linen; but, in place of these, we found a sort of sheath, made of papyrus, and coated with a layer of plaster, thickly gilt and painted. The paintings represented subjects connected with the various supposed duties of the soul, and its presentation to different divinities, with numerous identical human figures, intended, very probably, as portraits of the persons embalmed. Extending from head to foot was a columnar, or perpendicular, inscription, in phonetic hieroglyphics, giving again his name and titles, and the names and titles of his relations.
Around the neck thus ensheathed, was a collar of cylindrical glass beads, diverse in color, and so arranged as to form images of deities, of the scarabaeus, etc, with the winged globe. Around the small of the waist was a similar collar or belt.
Stripping off the papyrus, we found the flesh in excellent preservation, with no perceptible odor. The color was reddish. The skin was hard, smooth, and glossy. The teeth and hair were in good condition. The eyes (it seemed) had been removed, and glass ones substituted, which were very beautiful and wonderfully life-like, with the exception of somewhat too determined a stare. The fingers and the nails were brilliantly gilded.
Mr. Gliddon was of opinion, from the redness of the epidermis, that the embalmment had been effected altogether by asphaltum; but, on scraping the surface with a steel instrument, and throwing into the fire some of the powder thus obtained, the flavor of camphor and other sweet-scented gums became apparent.
We searched the corpse very carefully for the usual openings through which the entrails are extracted, but, to our surprise, we could discover none. No member of the party was at that period aware that entire or unopened mummies are not infrequently met. The brain it was customary to withdraw through the nose; the intestines through an incision in the side; the body was then shaved, washed, and salted; then laid aside for several weeks, when the operation of embalming, properly so called, began.
As no trace of an opening could be found, Doctor Ponnonner was preparing his instruments for dissection, when I observed that it was then past two o’clock. Hereupon it was agreed to postpone the internal examination until the next evening; and we were about to separate for the present, when some one suggested an experiment or two with the Voltaic pile.
The application of electricity to a mummy three or four thousand years old at the least was an idea, if not very sage, still sufficiently original, and we all caught it at once. About one-tenth in earnest and nine-tenths in jest, we arranged a battery in the Doctor’s study and conveyed thither the Egyptian.
It was only after much trouble that we succeeded in laying bare some portions of the temporal muscle which appeared of less stony rigidity than other parts of the frame, but which, as we had anticipated, of course, gave no indication of galvanic susceptibility when brought in contact with the wire. This, the first trial, indeed, seemed decisive, and, with a hearty laugh at our own absurdity, we were bidding each other good night, when my eyes, happening to fall upon those of the Mummy, were there immediately riveted in amazement. My brief glance, in fact, had sufficed to assure me that the orbs which we had all supposed to be glass, and which were originally noticeable for a certain wild stare, were now so far covered by the lids, that only a small portion of the tunica albuginea remained visible.
With a shout, I called attention to the fact, and it became immediately obvious to all.
I cannot say that I was alarmed at the phenomenon, because “alarmed” is, in my case, not exactly the word. It is possible, however, that, but for the Brown Stout, I might have been a little nervous. As for the rest of the company, they really made no attempt at concealing the downright fright which possessed them. Doctor Ponnonner was a man to be pitied. Mr. Gliddon, by some peculiar process, rendered himself invisible. Mr. Silk Buckingham, I fancy, will scarcely be so bold as to deny that he made his way, upon all fours, under the table.
After the first shock of astonishment, however, we resolved, as a matter of course, upon further experiment forthwith. Our operations were now directed against the great toe of the right foot. We made an incision over the outside of the exterior os sesamoideum pollicis pedis, and thus got at the root of the abductor muscle. Readjusting the battery, we now applied the fluid to the bisected nerves — when, with a movement of exceeding life-likeness, the Mummy first drew up its right knee so as to bring it nearly in contact with the abdomen, and then, straightening the limb with inconceivable force, bestowed a kick upon Doctor Ponnonner, which had the effect of discharging that gentleman, like an arrow from a catapult, through a window into the street below.
We rushed out en masse to bring in the mangled remains of the victim but had the happiness to meet him upon the staircase, coming up in an unaccountable hurry, brimful of the most ardent philosophy, and more than ever impressed with the necessity of prosecuting our experiment with vigor and with zeal.
It was by his advice, accordingly, that we made, upon the spot, a profound incision into the tip of the subject’s nose, while the Doctor himself, laying violent hands upon it, pulled it into vehement contact with the wire.
Morally and physically — figuratively and literally — was the effect electric. In the first place, the corpse opened its eyes and winked very rapidly for several minutes, as does Mr. Barnes in the pantomime, in the second place, it sneezed; in the third, it sat upon end; in the fourth, it shook its fist in Doctor Ponnonner’s face; in the fifth, turning to Messieurs Gliddon and Buckingham, it addressed them, in very capital Egyptian, thus:
“I must say, gentlemen, that I am as much surprised as I am mortified at your behavior. Of Doctor Ponnonner nothing better was to be expected. He is a poor little fat fool who knows no better. I pity and forgive him. But you, Mr. Gliddon- and you, Silk — who have travelled and resided in Egypt until one might imagine you to the manner born — you, I say who have been so much among us that you speak Egyptian fully as well, I think, as you write your mother tongue — you, whom I have always been led to regard as the firm friend of the mummies — I really did anticipate more gentlemanly conduct from you. What am I to think of your standing quietly by and seeing me thus unhandsomely used? What am I to suppose by your permitting Tom, Dick, and Harry to strip me of my coffins, and my clothes, in this wretchedly cold climate? In what light (to come to the point) am I to regard your aiding and abetting that miserable little villain, Doctor Ponnonner, in pulling me by the nose?”
It will be taken for granted, no doubt, that upon hearing this speech under the circumstances, we all either made for the door, or fell into violent hysterics, or went off in a general swoon. One of these three things was, I say, to be expected. Indeed each and all of these lines of conduct might have been very plausibly pursued. And, upon my word, I am at a loss to know how or why it was that we pursued neither the one nor the other. But, perhaps, the true reason is to be sought in the spirit of the age, which proceeds by the rule of contraries altogether, and is now usually admitted as the solution of every thing in the way of paradox and impossibility. Or, perhaps, after all, it was only the Mummy’s exceedingly natural and matter-of-course air that divested his words of the terrible. However this may be, the facts are clear, and no member of our party betrayed any very particular trepidation, or seemed to consider that any thing had gone very especially wrong.
For my part I was convinced it was all right, and merely stepped aside, out of the range of the Egyptian’s fist. Doctor Ponnonner thrust his hands into his breeches’ pockets, looked hard at the Mummy, and grew excessively red in the face. Mr. Glidden stroked his whiskers and drew up the collar of his shirt. Mr. Buckingham hung down his head, and put his right thumb into the left corner of his mouth.
The Egyptian regarded him with a severe countenance for some minutes and at length, with a sneer, said:
“Why don’t you speak, Mr. Buckingham? Did you hear what I asked you, or not? Do take your thumb out of your mouth!”
Mr. Buckingham, hereupon, gave a slight start, took his right thumb out of the left corner of his mouth, and, by way of indemnification inserted his left thumb in the right corner of the aperture above-mentioned.
Not being able to get an answer from Mr. B., the figure turned peevishly to Mr. Gliddon, and, in a peremptory tone, demanded in general terms what we all meant.
Mr. Gliddon replied at great length, in phonetics; and but for the deficiency of American printing-offices in hieroglyphical type, it would afford me much pleasure to record here, in the original, the whole of his very excellent speech.
I may as well take this occasion to remark, that all the subsequent conversation in which the Mummy took a part, was carried on in primitive Egyptian, through the medium (so far as concerned myself and other untravelled members of the company) — through the medium, I say, of Messieurs Gliddon and Buckingham, as interpreters. These gentlemen spoke the mother tongue of the Mummy with inimitable fluency and grace; but I could not help observing that (owing, no doubt, to the introduction of images entirely modern, and, of course, entirely novel to the stranger) the two travellers were reduced, occasionally, to the employment of sensible forms for the purpose of conveying a particular meaning. Mr. Gliddon, at one period, for example, could not make the Egyptian comprehend the term “politics,” until he sketched upon the wall, with a bit of charcoal a little carbuncle-nosed gentleman, out at elbows, standing upon a stump, with his left leg drawn back, right arm thrown forward, with his fist shut, the eyes rolled up toward Heaven, and the mouth open at an angle of ninety degrees. Just in the same way Mr. Buckingham failed to convey the absolutely modern idea “wig,” until (at Doctor Ponnonner’s suggestion) he grew very pale in the face, and consented to take off his own.
It will be readily understood that Mr. Gliddon’s discourse turned chiefly upon the vast benefits accruing to science from the unrolling and disembowelling of mummies; apologizing, upon this score, for any disturbance that might have been occasioned him, in particular, the individual Mummy called Allamistakeo; and concluding with a mere hint (for it could scarcely be considered more) that, as these little matters were now explained, it might be as well to proceed with the investigation intended. Here Doctor Ponnonner made ready his instruments.
In regard to the latter suggestions of the orator, it appears that Allamistakeo had certain scruples of conscience, the nature of which I did not distinctly learn; but he expressed himself satisfied with the apologies tendered, and, getting down from the table, shook hands with the company all round.
When this ceremony was at an end, we immediately busied ourselves in repairing the damages which our subject had sustained from the scalpel. We sewed up the wound in his temple, bandaged his foot, and applied a square inch of black plaster to the tip of his nose.
It was now observed that the Count (this was the title, it seems, of Allamistakeo) had a slight fit of shivering — no doubt from the cold. The Doctor immediately repaired to his wardrobe, and soon returned with a black dress coat, made in Jennings’ best manner, a pair of sky-blue plaid pantaloons with straps, a pink gingham chemise, a flapped vest of brocade, a white sack overcoat, a walking cane with a hook, a hat with no brim, patent-leather boots, straw-colored kid gloves, an eye-glass, a pair of whiskers, and a waterfall cravat. Owing to the disparity of size between the Count and the doctor (the proportion being as two to one), there was some little difficulty in adjusting these habiliments upon the person of the Egyptian; but when all was arranged, he might have been said to be dressed. Mr. Gliddon, therefore, gave him his arm, and led him to a comfortable chair by the fire, while the Doctor rang the bell upon the spot and ordered a supply of cigars and wine.
The conversation soon grew animated. Much curiosity was, of course, expressed in regard to the somewhat remarkable fact of Allamistakeo’s still remaining alive.
“I should have thought,” observed Mr. Buckingham, “that it is high time you were dead.”
“Why,” replied the Count, very much astonished, “I am little more than seven hundred years old! My father lived a thousand, and was by no means in his dotage when he died.”
Here ensued a brisk series of questions and computations, by means of which it became evident that the antiquity of the Mummy had been grossly misjudged. It had been five thousand and fifty years and some months since he had been consigned to the catacombs at Eleithias.
“But my remark,” resumed Mr. Buckingham, “had no reference to your age at the period of interment (I am willing to grant, in fact, that you are still a young man), and my illusion was to the immensity of time during which, by your own showing, you must have been done up in asphaltum.”
“In what?” said the Count.
“In asphaltum,” persisted Mr. B.
“Ah, yes; I have some faint notion of what you mean; it might be made to answer, no doubt — but in my time we employed scarcely any thing else than the Bichloride of Mercury.”
“But what we are especially at a loss to understand,” said Doctor Ponnonner, “is how it happens that, having been dead and buried in Egypt five thousand years ago, you are here to-day all alive and looking so delightfully well.”
“Had I been, as you say, dead,” replied the Count, “it is more than probable that dead, I should still be; for I perceive you are yet in the infancy of Calvanism, and cannot accomplish with it what was a common thing among us in the old days. But the fact is, I fell into catalepsy, and it was considered by my best friends that I was either dead or should be; they accordingly embalmed me at once — I presume you are aware of the chief principle of the embalming process?”
“Why not altogether.”
“Why, I perceive — a deplorable condition of ignorance! Well I cannot enter into details just now: but it is necessary to explain that to embalm (properly speaking), in Egypt, was to arrest indefinitely all the animal functions subjected to the process. I use the word ‘animal’ in its widest sense, as including the physical not more than the moral and vital being. I repeat that the leading principle of embalmment consisted, with us, in the immediately arresting, and holding in perpetual abeyance, all the animal functions subjected to the process. To be brief, in whatever condition the individual was, at the period of embalmment, in that condition he remained. Now, as it is my good fortune to be of the blood of the Scarabaeus, I was embalmed alive, as you see me at present.”
“The blood of the Scarabaeus!” exclaimed Doctor Ponnonner.
“Yes. The Scarabaeus was the insignium or the ‘arms,’ of a very distinguished and very rare patrician family. To be ‘of the blood of the Scarabaeus,’ is merely to be one of that family of which the Scarabaeus is the insignium. I speak figuratively.”
“But what has this to do with you being alive?”
“Why, it is the general custom in Egypt to deprive a corpse, before embalmment, of its bowels and brains; the race of the Scarabaei alone did not coincide with the custom. Had I not been a Scarabeus, therefore, I should have been without bowels and brains; and without either it is inconvenient to live.”
“I perceive that,” said Mr. Buckingham, “and I presume that all the entire mummies that come to hand are of the race of Scarabaei.”
“Beyond doubt.”
“I thought,” said Mr. Gliddon, very meekly, “that the Scarabaeus was one of the Egyptian gods.”
“One of the Egyptian what?” exclaimed the Mummy, starting to its feet.
“Gods!” repeated the traveller.
“Mr. Gliddon, I really am astonished to hear you talk in this style,” said the Count, resuming his chair. “No nation upon the face of the earth has ever acknowledged more than one god. The Scarabaeus, the Ibis, etc., were with us (as similar creatures have been with others) the symbols, or media, through which we offered worship to the Creator too august to be more directly approached.”
There was here a pause. At length the colloquy was renewed by Doctor Ponnonner.
“It is not improbable, then, from what you have explained,” said he, “that among the catacombs near the Nile there may exist other mummies of the Scarabaeus tribe, in a condition of vitality?”
“There can be no question of it,” replied the Count; “all the Scarabaei embalmed accidentally while alive, are alive now. Even some of those purposely so embalmed, may have been overlooked by their executors, and still remain in the tomb.”
“Will you be kind enough to explain,” I said, “what you mean by ‘purposely so embalmed’?”
“With great pleasure!” answered the Mummy, after surveying me leisurely through his eye-glass — for it was the first time I had ventured to address him a direct question.
“With great pleasure,” he said. “The usual duration of man’s life, in my time, was about eight hundred years. Few men died, unless by most extraordinary accident, before the age of six hundred; few lived longer than a decade of centuries; but eight were considered the natural term. After the discovery of the embalming principle, as I have already described it to you, it occurred to our philosophers that a laudable curiosity might be gratified, and, at the same time, the interests of science much advanced, by living this natural term in installments. In the case of history, indeed, experience demonstrated that something of this kind was indispensable. An historian, for example, having attained the age of five hundred, would write a book with great labor and then get himself carefully embalmed; leaving instructions to his executors pro tem., that they should cause him to be revivified after the lapse of a certain period — say five or six hundred years. Resuming existence at the expiration of this time, he would invariably find his great work converted into a species of hap-hazard note-book — that is to say, into a kind of literary arena for the conflicting guesses, riddles, and personal squabbles of whole herds of exasperated commentators. These guesses, etc., which passed under the name of annotations, or emendations, were found so completely to have enveloped, distorted, and overwhelmed the text, that the author had to go about with a lantern to discover his own book. When discovered, it was never worth the trouble of the search. After re-writing it throughout, it was regarded as the bounden duty of the historian to set himself to work immediately in correcting, from his own private knowledge and experience, the traditions of the day concerning the epoch at which he had originally lived. Now this process of re-scription and personal rectification, pursued by various individual sages from time to time, had the effect of preventing our history from degenerating into absolute fable.”
“I beg your pardon,” said Doctor Ponnonner at this point, laying his hand gently upon the arm of the Egyptian — “I beg your pardon, sir, but may I presume to interrupt you for one moment?”
“By all means, sir,” replied the Count, drawing up.
“I merely wished to ask you a question,” said the Doctor. “You mentioned the historian’s personal correction of traditions respecting his own epoch. Pray, sir, upon an average what proportion of these Kabbala were usually found to be right?”
“The Kabbala, as you properly term them, sir, were generally discovered to be precisely on a par with the facts recorded in the un-re-written histories themselves; — that is to say, not one individual iota of either was ever known, under any circumstances, to be not totally and radically wrong.”
“But since it is quite clear,” resumed the Doctor, “that at least five thousand years have elapsed since your entombment, I take it for granted that your histories at that period, if not your traditions were sufficiently explicit on that one topic of universal interest, the Creation, which took place, as I presume you are aware, only about ten centuries before.”
“Sir!” said the Count Allamistakeo.
The Doctor repeated his remarks, but it was only after much additional explanation that the foreigner could be made to comprehend them. The latter at length said, hesitatingly:
“The ideas you have suggested are to me, I confess, utterly novel. During my time I never knew any one to entertain so singular a fancy as that the universe (or this world if you will have it so) ever had a beginning at all. I remember once, and once only, hearing something remotely hinted, by a man of many speculations, concerning the origin of the human race; and by this individual, the very word Adam (or Red Earth), which you make use of, was employed. He employed it, however, in a generical sense, with reference to the spontaneous germination from rank soil (just as a thousand of the lower genera of creatures are germinated) — the spontaneous germination, I say, of five vast hordes of men, simultaneously upspringing in five distinct and nearly equal divisions of the globe.”
Here, in general, the company shrugged their shoulders, and one or two of us touched our foreheads with a very significant air. Mr. Silk Buckingham, first glancing slightly at the occiput and then at the sinciput of Allamistakeo, spoke as follows:
“The long duration of human life in your time, together with the occasional practice of passing it, as you have explained, in installments, must have had, indeed, a strong tendency to the general development and conglomeration of knowledge. I presume, therefore, that we are to attribute the marked inferiority of the old Egyptians in all particulars of science, when compared with the moderns, and more especially with the Yankees, altogether to the superior solidity of the Egyptian skull.”
“I confess again,” replied the Count, with much suavity, “that I am somewhat at a loss to comprehend you; pray, to what particulars of science do you allude?”
Here our whole party, joining voices, detailed, at great length, the assumptions of phrenology and the marvels of animal magnetism.
Having heard us to an end, the Count proceeded to relate a few anecdotes, which rendered it evident that prototypes of Gall and Spurzheim had flourished and faded in Egypt so long ago as to have been nearly forgotten, and that the manoeuvres of Mesmer were really very contemptible tricks when put in collation with the positive miracles of the Theban savans, who created lice and a great many other similar things.
I here asked the Count if his people were able to calculate eclipses. He smiled rather contemptuously, and said they were.
This put me a little out, but I began to make other inquiries in regard to his astronomical knowledge, when a member of the company, who had never as yet opened his mouth, whispered in my ear, that for information on this head, I had better consult Ptolemy (whoever Ptolemy is), as well as one Plutarch de facie lunae.
I then questioned the Mummy about burning-glasses and lenses, and, in general, about the manufacture of glass; but I had not made an end of my queries before the silent member again touched me quietly on the elbow, and begged me for God’s sake to take a peep at Diodorus Siculus. As for the Count, he merely asked me, in the way of reply, if we moderns possessed any such microscopes as would enable us to cut cameos in the style of the Egyptians. While I was thinking how I should answer this question, little Doctor Ponnonner committed himself in a very extraordinary way.
“Look at our architecture!” he exclaimed, greatly to the indignation of both the travellers, who pinched him black and blue to no purpose.
“Look,” he cried with enthusiasm, “at the Bowling-Green Fountain in New York! or if this be too vast a contemplation, regard for a moment the Capitol at Washington, D. C.!” — and the good little medical man went on to detail very minutely, the proportions of the fabric to which he referred. He explained that the portico alone was adorned with no less than four and twenty columns, five feet in diameter, and ten feet apart.
The Count said that he regretted not being able to remember, just at that moment, the precise dimensions of any one of the principal buildings of the city of Aznac, whose foundations were laid in the night of Time, but the ruins of which were still standing, at the epoch of his entombment, in a vast plain of sand to the westward of Thebes. He recollected, however, (talking of the porticoes,) that one affixed to an inferior palace in a kind of suburb called Carnac, consisted of a hundred and forty-four columns, thirty-seven feet in circumference, and twenty-five feet apart. The approach to this portico, from the Nile, was through an avenue two miles long, composed of sphynxes, statues, and obelisks, twenty, sixty, and a hundred feet in height. The palace itself (as well as he could remember) was, in one direction, two miles long, and might have been altogether about seven in circuit. Its walls were richly painted all over, within and without, with hieroglyphics. He would not pretend to assert that even fifty or sixty of the Doctor’s Capitols might have been built within these walls, but he was by no means sure that two or three hundred of them might not have been squeezed in with some trouble. That palace at Carnac was an insignificant little building after all. He (the Count), however, could not conscientiously refuse to admit the ingenuity, magnificence, and superiority of the Fountain at the Bowling Green, as described by the Doctor. Nothing like it, he was forced to allow, had ever been seen in Egypt or elsewhere.
I here asked the Count what he had to say to our railroads.
“Nothing,” he replied, “in particular.” They were rather slight, rather ill-conceived, and clumsily put together. They could not be compared, of course, with the vast, level, direct, iron-grooved causeways upon which the Egyptians conveyed entire temples and solid obelisks of a hundred and fifty feet in altitude.
I spoke of our gigantic mechanical forces.
He agreed that we knew something in that way, but inquired how I should have gone to work in getting up the imposts on the lintels of even the little palace at Carnac.
This question I concluded not to hear, and demanded if he had any idea of Artesian wells; but he simply raised his eyebrows; while Mr. Gliddon winked at me very hard and said, in a low tone, that one had been recently discovered by the engineers employed to bore for water in the Great Oasis.
I then mentioned our steel; but the foreigner elevated his nose, and asked me if our steel could have executed the sharp carved work seen on the obelisks, and which was wrought altogether by edge-tools of copper.
This disconcerted us so greatly that we thought it advisable to vary the attack to Metaphysics. We sent for a copy of a book called the “Dial,” and read out of it a chapter or two about something that is not very clear, but which the Bostonians call the Great Movement of Progress.
The Count merely said that Great Movements were awfully common things in his day, and as for Progress, it was at one time quite a nuisance, but it never progressed.
We then spoke of the great beauty and importance of Democracy, and were at much trouble in impressing the Count with a due sense of the advantages we enjoyed in living where there was suffrage ad libitum, and no king.
He listened with marked interest, and in fact seemed not a little amused. When we had done, he said that, a great while ago, there had occurred something of a very similar sort. Thirteen Egyptian provinces determined all at once to be free, and to set a magnificent example to the rest of mankind. They assembled their wise men, and concocted the most ingenious constitution it is possible to conceive. For a while they managed remarkably well; only their habit of bragging was prodigious. The thing ended, however, in the consolidation of the thirteen states, with some fifteen or twenty others, in the most odious and insupportable despotism that was ever heard of upon the face of the Earth.
I asked what was the name of the usurping tyrant.
As well as the Count could recollect, it was Mob.
Not knowing what to say to this, I raised my voice, and deplored the Egyptian ignorance of steam.
The Count looked at me with much astonishment, but made no answer. The silent gentleman, however, gave me a violent nudge in the ribs with his elbows — told me I had sufficiently exposed myself for once — and
demanded if I was really such a fool as not to know that the modern steam-engine is derived from the invention of Hero, through Solomon de Caus.
We were now in imminent danger of being discomfited; but, as good luck would have it, Doctor Ponnonner, having rallied, returned to our rescue, and inquired if the people of Egypt would seriously pretend to rival the moderns in the all- important particular of dress.
The Count, at this, glanced downward to the straps of his pantaloons, and then taking hold of the end of one of his coat-tails, held it up close to his eyes for some minutes. Letting it fall, at last, his mouth extended itself very gradually from ear to ear; but I do not remember that he said any thing in the way of reply.
Hereupon we recovered our spirits, and the Doctor, approaching the Mummy with great dignity, desired it to say candidly, upon its honor as a gentleman, if the Egyptians had comprehended, at any period, the manufacture of either Ponnonner’s lozenges or Brandreth’s pills.
We looked, with profound anxiety, for an answer — but in vain. It was not forthcoming. The Egyptian blushed and hung down his head. Never was triumph more consummate; never was defeat borne with so ill a grace. Indeed, I could not endure the spectacle of the poor Mummy’s mortification. I reached my hat, bowed to him stiffly, and took leave.
Upon getting home I found it past four o’clock, and went immediately to bed. It is now ten A.M. I have been up since seven, penning these memoranda for the benefit of my family and of mankind. The former I shall behold no more. My wife is a shrew. The truth is, I am heartily sick of this life and of the nineteenth century in general. I am convinced that every thing is going wrong. Besides, I am anxious to know who will be President in 2045. As soon, therefore, as I shave and swallow a cup of coffee, I shall just step over to Ponnonner’s and get embalmed for a couple of hundred years.
Dear Learner! The Short Story is Written by Edgar Allan Poe.
Pestis eram vivus – moriens tua mors ero. — Martin Luther
HORROR and fatality have been stalking abroad in all ages. Why then give a date to this story I have to tell? Let it suffice to say, that at the period of which I speak, there existed, in the interior of Hungary, a settled although hidden belief in the doctrines of the Metempsychosis. Of the doctrines themselves – that is, of their falsity, or of their probability – I say nothing. I assert, however, that much of our incredulity – as La Bruyere says of all our unhappiness – ” vient de ne pouvoir être seuls .”
But there are some points in the Hungarian superstition which were fast verging to absurdity. They – the Hungarians – differed very essentially from their Eastern authorities. For example, ” The soul ,” said the former – I give the words of an acute and intelligent Parisian – ” ne demeure qu’un seul fois dans un corps sensible: au reste – un cheval, un chien, un homme meme, n’est que la ressemblance peu tangible de ces animaux. ”
The families of Berlifitzing and Metzengerstein had been at variance for centuries. Never before were two houses so illustrious, mutually embittered by hostility so deadly. The origin of this enmity seems to be found in the words of an ancient prophecy – “A lofty name shall have a fearful fall when, as the rider over his horse, the mortality of Metzengerstein shall triumph over the immortality of Berlifitzing.”
To be sure the words themselves had little or no meaning. But more trivial causes have given rise – and that no long while ago – to consequences equally eventful. Besides, the estates, which were contiguous, had long exercised a rival influence in the affairs of a busy government. Moreover, near neighbors are seldom friends; and the inhabitants of the Castle Berlifitzing might look, from their lofty buttresses, into the very windows of the palace Metzengerstein. Least of all had the more than feudal magnificence, thus discovered, a tendency to allay the irritable feelings of the less ancient and less wealthy Berlifitzings. What wonder then, that the words, however silly, of that prediction, should have succeeded in setting and keeping at variance two families already predisposed to quarrel by every instigation of hereditary jealousy? The prophecy seemed to imply – if it implied anything – a final triumph on the part of the already more powerful house; and was of course remembered with the more bitter animosity by the weaker and less influential.
Wilhelm, Count Berlifitzing, although loftily descended, was, at the epoch of this narrative, an infirm and doting old man, remarkable for nothing but an inordinate and inveterate personal antipathy to the family of his rival, and so passionate a love of horses, and of hunting, that neither bodily infirmity, great age, nor mental incapacity, prevented his daily participation in the dangers of the chase.
Frederick, Baron Metzengerstein, was, on the other hand, not yet Mary, followed him quickly after. Frederick was, at that time, in his fifteenth year. In a city, fifteen years are no long period – a child may be still a child in his third lustrum: but in a wilderness – in so magnificent a wilderness as that old principality, fifteen years have a far deeper meaning.
From some peculiar circumstances attending the administration of his father, the young Baron, at the decease of the former, entered immediately upon his vast possessions. Such estates were seldom held before by a nobleman of Hungary. His castles were without number. The chief in point of splendor and extent was the “Chateau Metzengerstein.” The boundary line of his dominions was never clearly defined; but his principal park embraced a circuit of fifty miles.
Upon the succession of a proprietor so young, with a character so well known, to a fortune so unparalleled, little speculation was afloat in regard to his probable course of conduct. And, indeed, for the space of three days, the behavior of the heir out-heroded Herod, and fairly surpassed the expectations of his most enthusiastic admirers. Shameful debaucheries – flagrant treacheries – unheard-of atrocities – gave his trembling vassals quickly to understand that no servile submission on their part – no punctilios of conscience on his own – were thenceforward to prove any security against the remorseless fangs of a petty Caligula. On the night of the fourth day, the stables of the castle Berlifitzing were discovered to be on fire; and the unanimous opinion of the neighborhood added the crime of the incendiary to the already hideous list of the Baron’s misdemeanors and enormities.
But during the tumult occasioned by this occurrence, the young nobleman himself sat apparently buried in meditation, in a vast and desolate upper apartment of the family palace of Metzengerstein. The rich although faded tapestry hangings which swung gloomily upon the walls, represented the shadowy and majestic forms of a thousand illustrious ancestors. Here , rich-ermined priests, and pontifical dignitaries, familiarly seated with the autocrat and the sovereign, put a veto on the wishes of a temporal king, or restrained with the fiat of papal supremacy the rebellious sceptre of the Arch-enemy. There , the dark, tall statures of the Princes Metzengerstein – their muscular war-coursers plunging over the carcasses of fallen foes – startled the steadiest nerves with their vigorous expression; and here, again, the voluptuous and swan-like figures of the dames of days gone by, floated away in the mazes of an unreal dance to the strains of imaginary melody.
But as the Baron listened, or affected to listen, to the gradually increasing uproar in the stables of Berlifitzing – or perhaps pondered upon some more novel, some more decided act of audacity – his eyes became unwittingly rivetted to the figure of an enormous, and unnaturally colored horse, represented in the tapestry as belonging to a Saracen ancestor of the family of his rival. The horse itself, in the foreground of the design, stood motionless and statue-like – while farther back, its discomfited rider perished by the dagger of a Metzengerstein.
On Frederick’s lip arose a fiendish expression, as he became aware of the direction which his glance had, without his consciousness, assumed. Yet he did not remove it. On the contrary, he could by no means account for the overwhelming anxiety which appeared falling like a pall upon his senses. It was with difficulty that he reconciled his dreamy and incoherent feelings with the certainty of being awake. The longer he gazed the more absorbing became the spell – the more impossible did it appear that he could ever withdraw his glance from the fascination of that tapestry. But the tumult without becoming suddenly more violent, with a compulsory exertion he diverted his attention to the glare of ruddy light thrown full by the flaming stables upon the windows of the apartment.
The action, however, was but momentary, his gaze returned mechanically to the wall. To his extreme horror and astonishment, the head of the gigantic steed had, in the meantime, altered its position. The neck of the animal, before arched, as if in compassion, over the prostrate body of its lord, was now extended, at full length, in the direction of the Baron. The eyes, before invisible, now wore an energetic and human expression, while they gleamed with a fiery and unusual red; and the distended lips of the apparently enraged horse left in full view his gigantic and disgusting teeth.
Stupified with terror, the young nobleman tottered to the door. As he threw it open, a flash of red light, streaming far into the chamber, flung his shadow with a clear outline against the quivering tapestry, and he shuddered to perceive that shadow – as he staggered awhile upon the threshold – assuming the exact position, and precisely filling up the contour, of the relentless and triumphant murderer of the Saracen Berlifitzing.
To lighten the depression of his spirits, the Baron hurried into the open air. At the principal gate of the palace he encountered three equerries. With much difficulty, and at the imminent peril of their lives, they were restraining the convulsive plunges of a gigantic and fiery-colored horse.
“Whose horse? Where did you get him?” demanded the youth, in a querulous and husky tone of voice, as he became instantly aware that the mysterious steed in the tapestried chamber was the very counterpart of the furious animal before his eyes.
“He is your own property, sire,” replied one of the equerries, “at least he is claimed by no other owner. We caught him flying, all smoking and foaming with rage, from the burning stables of the Castle Berlifitzing. Supposing him to have belonged to the old Count’s stud of foreign horses, we led him back as an estray. But the grooms there disclaim any title to the creature; which is strange, since he bears evident marks of having made a narrow escape from the flames.
“The letters W. V. B. are also branded very distinctly on his forehead,” interrupted a second equerry, “I supposed them, of course, to be the initials of Wilhelm Von Berlifitzing – but all at the castle are positive in denying any knowledge of the horse.”
“Extremely singular!” said the young Baron, with a musing air, and apparently unconscious of the meaning of his words. “He is, as you say, a remarkable horse – a prodigious horse! although, as you very justly observe, of a suspicious and untractable character, let him be mine, however,” he added, after a pause, “perhaps a rider like Frederick of Metzengerstein, may tame even the devil from the stables of Berlifitzing.”
“You are mistaken, my lord; the horse, as I think we mentioned, is not from the stables of the Count. If such had been the case, we know our duty better than to bring him into the presence of a noble of your family.”
“True!” observed the Baron, dryly, and at that instant, a page of the bedchamber came from the palace with a heightened color and a precipitate step. He whispered into his master’s ear an account of the sudden disappearance of a small portion of the tapestry, in an apartment which he designated; entering, at the same time, into particulars of a minute and circumstantial character; but from the low tone of voice in which these latter were communicated, nothing escaped to gratify the excited curiosity of the equerries.
The young Frederick, during the conference, seemed agitated by a variety of emotions. He soon, however, recovered his composure, and an expression of determined malignancy settled upon his countenance, as he gave peremptory orders that a certain chamber should be immediately locked up, and the key placed in his own possession.
“Have you heard of the unhappy death of the old hunter Berlifitzing?” said one of his vassals to the Baron, as, after the departure of the page, the huge steed which that nobleman had adopted as his own, plunged and curvetted, with redoubled fury, down the long avenue which extended from the chateau to the stables of Metzengerstein.
“No!” said the Baron, turning abruptly toward the speaker, “dead! say you?”
“It is indeed true, my lord; and, to a noble of your name, will be, I imagine, no unwelcome intelligence.”
A rapid smile shot over the countenance of the listener. “How died he?”
“In his rash exertions to rescue a favorite portion of his hunting stud, he has himself perished miserably in the flames.”
“I-n-d-e-e-d-!” ejaculated the Baron, as if slowly and deliberately impressed with the truth of some exciting idea.
“Indeed;” repeated the vassal.
“Shocking!” said the youth, calmly, and turned quietly into the chateau.
From this date a marked alteration took place in the outward demeanor of the dissolute young Baron Frederick Von Metzengerstein. Indeed, his behavior disappointed every expectation, and proved little in accordance with the views of many a manoeuvering mamma; while his habits and manner, still less than formerly, offered any thing congenial with those of the neighboring aristocracy. He was never to be seen beyond the limits of his own domain, and, in this wide and social world, was utterly companionless – unless, indeed, that unnatural, impetuous, and fiery-colored horse, which he henceforward continually bestrode, had any mysterious right to the title of his friend.
Numerous invitations on the part of the neighborhood for a long time, however, periodically came in. “Will the Baron honor our festivals with his presence?” “Will the Baron join us in a hunting of the boar?” – “Metzengerstein does not hunt;” “Metzengerstein will not attend,” were the haughty and laconic answers.
These repeated insults were not to be endured by an imperious nobility. Such invitations became less cordial – less frequent – in time they ceased altogether. The widow of the unfortunate Count Berlifitzing was even heard to express a hope “that the Baron might be at home when he did not wish to be at home, since he disdained the company of his equals; and ride when he did not wish to ride, since he preferred the society of a horse.” This to be sure was a very silly explosion of hereditary pique; and merely proved how singularly unmeaning our sayings are apt to become, when we desire to be unusually energetic.
The charitable, nevertheless, attributed the alteration in the conduct of the young nobleman to the natural sorrow of a son for the untimely loss of his parents – forgetting, however, his atrocious and reckless behavior during the short period immediately succeeding that bereavement. Some there were, indeed, who suggested a too haughty idea of self-consequence and dignity. Others again (among them may be mentioned the family physician) did not hesitate in speaking of morbid melancholy, and hereditary ill-health; while dark hints, of a more equivocal nature, were current among the multitude.
Indeed, the Baron’s perverse attachment to his lately-acquired charger – an attachment which seemed to attain new strength from every fresh example of the animal’s ferocious and demon-like propensities – at length became, in the eyes of all reasonable men, a hideous and unnatural fervor. In the glare of noon – at the dead hour of night – in sickness or in health – in calm or in tempest – the young Metzengerstein seemed rivetted to the saddle of that colossal horse, whose intractable audacities so well accorded with his own spirit.
There were circumstances, moreover, which coupled with late events, gave an unearthly and portentous character to the mania of the rider, and to the capabilities of the steed. The space passed over in a single leap had been accurately measured, and was found to exceed, by an astounding difference, the wildest expectations of the most imaginative. The Baron, besides, had no particular name for the animal, although all the rest in his collection were distinguished by characteristic appellations. His stable, too, was appointed at a distance from the rest; and with regard to grooming and other necessary offices, none but the owner in person had ventured to officiate, or even to enter the enclosure of that particular stall. It was also to be observed, that although the three grooms, who had caught the steed as he fled from the conflagration at Berlifitzing, had succeeded in arresting his course, by means of a chain-bridle and noose – yet no one of the three could with any certainty affirm that he had, during that dangerous struggle, or at any period thereafter, actually placed his hand upon the body of the beast. Instances of peculiar intelligence in the demeanor of a noble and high-spirited horse are not to be supposed capable of exciting unreasonable attention – especially among men who, daily trained to the labors of the chase, might appear well acquainted with the sagacity of a horse – but there were certain circumstances which intruded themselves per force upon the most skeptical and phlegmatic; and it is said there were times when the animal caused the gaping crowd who stood around to recoil in horror from the deep and impressive meaning of his terrible stamp – times when the young Metzengerstein turned pale and shrunk away from the rapid and searching expression of his earnest and human-looking eye.
Among all the retinue of the Baron, however, none were found to doubt the ardor of that extraordinary affection which existed on the part of the young nobleman for the fiery qualities of his horse; at least, none but an insignificant and misshapen little page, whose deformities were in everybody’s way, and whose opinions were of the least possible importance. He – if his ideas are worth mentioning at all – had the effrontery to assert that his master never vaulted into the saddle without an unaccountable and almost imperceptible shudder, and that, upon his return from every long-continued and habitual ride, an expression of triumphant malignity distorted every muscle in his countenance.
One tempestuous night, Metzengerstein, awaking from a heavy slumber, descended like a maniac from his chamber, and, mounting in hot haste, bounded away into the mazes of the forest. An occurrence so common attracted no particular attention, but his return was looked for with intense anxiety on the part of his domestics, when, after some hours’ absence, the stupendous and magnificent battlements of the Chateau Metzengerstein, were discovered crackling and rocking to their very foundation, under the influence of a dense and livid mass of ungovernable fire.
As the flames, when first seen, had already made so terrible a progress that all efforts to save any portion of the building were evidently futile, the astonished neighborhood stood idly around in silent and pathetic wonder. But a new and fearful object soon rivetted the attention of the multitude, and proved how much more intense is the excitement wrought in the feelings of a crowd by the contemplation of human agony, than that brought about by the most appalling spectacles of inanimate matter.
Up the long avenue of aged oaks which led from the forest to the main entrance of the Chateau Metzengerstein, a steed, bearing an unbonneted and disordered rider, was seen leaping with an impetuosity which outstripped the very Demon of the Tempest.
The career of the horseman was indisputably, on his own part, uncontrollable. The agony of his countenance, the convulsive struggle of his frame, gave evidence of superhuman exertion: but no sound, save a solitary shriek, escaped from his lacerated lips, which were bitten through and through in the intensity of terror. One instant, and the clattering of hoofs resounded sharply and shrilly above the roaring of the flames and the shrieking of the winds – another, and, clearing at a single plunge the gate-way and the moat, the steed bounded far up the tottering staircases of the palace, and, with its rider, disappeared amid the whirlwind of chaotic fire.
The fury of the tempest immediately died away, and a dead calm sullenly succeeded. A white flame still enveloped the building like a shroud, and, streaming far away into the quiet atmosphere, shot forth a glare of preternatural light; while a cloud of smoke settled heavily over the battlements in the distinct colossal figure of – a horse.
Dear Learner! The Short Story is Written by Edgar Allan Poe.
What chance, good lady, hath bereft you thus? –COMUS.
IT was a quiet and still afternoon when I strolled forth in the goodly city of Edina. The confusion and bustle in the streets were terrible. Men were talking. Women were screaming. Children were choking. Pigs were whistling. Carts they rattled. Bulls they bellowed. Cows they lowed. Horses they neighed. Cats they caterwauled. Dogs they danced. Danced! Could it then be possible? Danced! Alas, thought I, my dancing days are over! Thus it is ever. What a host of gloomy recollections will ever and anon be awakened in the mind of genius and imaginative contemplation, especially of a genius doomed to the everlasting and eternal, and continual, and, as one might say, the — continued — yes, the continued and continuous, bitter, harassing, disturbing, and, if I may be allowed the expression, the very disturbing influence of the serene, and godlike, and heavenly, and exalted, and elevated, and purifying effect of what may be rightly termed the most enviable, the most truly enviable — nay! the most benignly beautiful, the most deliciously ethereal, and, as it were, the most pretty (if I may use so bold an expression) thing (pardon me, gentle reader!) in the world — but I am always led away by my feelings. In such a mind, I repeat, what a host of recollections are stirred up by a trifle! The dogs danced! I — I could not! They frisked — I wept. They capered — I sobbed aloud. Touching circumstances! which cannot fail to bring to the recollection of the classical reader that exquisite passage in relation to the fitness of things, which is to be found in the commencement of the third volume of that admirable and venerable Chinese novel the Jo-Go-Slow.
In my solitary walk through, the city I had two humble but faithful companions. Diana, my poodle! sweetest of creatures! She had a quantity of hair over her one eye, and a blue ribband tied fashionably around her neck. Diana was not more than five inches in height, but her head was somewhat bigger than her body, and her tail being cut off exceedingly close, gave an air of injured innocence to the interesting animal which rendered her a favorite with all.
And Pompey, my negro! — sweet Pompey! how shall I ever forget thee? I had taken Pompey’s arm. He was three feet in height (I like to be particular) and about seventy, or perhaps eighty, years of age. He had bow-legs and was corpulent. His mouth should not be called small, nor his ears short. His teeth, however, were like pearl, and his large full eyes were deliciously white. Nature had endowed him with no neck, and had placed his ankles (as usual with that race) in the middle of the upper portion of the feet. He was clad with a striking simplicity. His sole garments were a stock of nine inches in height, and a nearly — new drab overcoat which had formerly been in the service of the tall, stately, and illustrious Dr. Moneypenny. It was a good overcoat. It was well cut. It was well made. The coat was nearly new. Pompey held it up out of the dirt with both hands.
There were three persons in our party, and two of them have already been the subject of remark. There was a third — that person was myself. I am the Signora Psyche Zenobia. I am not Suky Snobbs. My appearance is commanding. On the memorable occasion of which I speak I was habited in a crimson satin dress, with a sky-blue Arabian mantelet. And the dress had trimmings of green agraffas, and seven graceful flounces of the orange-colored auricula. I thus formed the third of the party. There was the poodle. There was Pompey. There was myself. We were three. Thus it is said there were originally but three Furies — Melty, Nimmy, and Hetty — Meditation, Memory, and Fiddling.
Leaning upon the arm of the gallant Pompey, and attended at a respectable distance by Diana, I proceeded down one of the populous and very pleasant streets of the now deserted Edina. On a sudden, there presented itself to view a church — a Gothic cathedral — vast, venerable, and with a tall steeple, which towered into the sky. What madness now possessed me? Why did I rush upon my fate? I was seized with an uncontrollable desire to ascend the giddy pinnacle, and then survey the immense extent of the city. The door of the cathedral stood invitingly open. My destiny prevailed. I entered the ominous archway. Where then was my guardian angel? — if indeed such angels there be. If! Distressing monosyllable! what world of mystery, and meaning, and doubt, and uncertainty is there involved in thy two letters! I entered the ominous archway! I entered; and, without injury to my orange-colored auriculas, I passed beneath the portal, and emerged within the vestibule. Thus it is said the immense river Alfred passed, unscathed, and unwetted, beneath the sea.
I thought the staircase would never have an end. Round! Yes, they went round and up, and round and up and round and up, until I could not help surmising, with the sagacious Pompey, upon whose supporting arm I leaned in all the confidence of early affection — I could not help surmising that the upper end of the continuous spiral ladder had been accidentally, or perhaps designedly, removed. I paused for breath; and, in the meantime, an accident occurred of too momentous a nature in a moral, and also in a metaphysical point of view, to be passed over without notice. It appeared to me — indeed I was quite confident of the fact — I could not be mistaken — no! I had, for some moments, carefully and anxiously observed the motions of my Diana — I say that I could not be mistaken — Diana smelt a rat! At once I called Pompey’s attention to the subject, and he — he agreed with me. There was then no longer any reasonable room for doubt. The rat had been smelled — and by Diana. Heavens! shall I ever forget the intense excitement of the moment? Alas! what is the boasted intellect of man? The rat! — it was there — that is to say, it was somewhere. Diana smelled the rat. I — I could not! Thus it is said the Prussian Isis has, for some persons, a sweet and very powerful perfume, while to others it is perfectly scentless.
The staircase had been surmounted, and there were now only three or four more upward steps intervening between us and the summit. We still ascended, and now only one step remained. One step! One little, little step! Upon one such little step in the great staircase of human life how vast a sum of human happiness or misery depends! I thought of myself, then of Pompey, and then of the mysterious and inexplicable destiny which surrounded us. I thought of Pompey! — alas, I thought of love! I thought of my many false steps which have been taken, and may be taken again. I resolved to be more cautious, more reserved. I abandoned the arm of Pompey, and, without his assistance, surmounted the one remaining step, and gained the chamber of the belfry. I was followed immediately afterward by my poodle. Pompey alone remained behind. I stood at the head of the staircase, and encouraged him to ascend. He stretched forth to me his hand, and unfortunately in so doing was forced to abandon his firm hold upon the overcoat. Will the gods never cease their persecution? The overcoat is dropped, and, with one of his feet, Pompey stepped upon the long and trailing skirt of the overcoat. He stumbled and fell — this consequence was inevitable. He fell forward, and, with his accursed head, striking me full in the — in the breast, precipitated me headlong, together with himself, upon the hard, filthy, and detestable floor of the belfry. But my revenge was sure, sudden, and complete. Seizing him furiously by the wool with both hands, I tore out a vast quantity of black, and crisp, and curling material, and tossed it from me with every manifestation of disdain. It fell among the ropes of the belfry and remained. Pompey arose, and said no word. But he regarded me piteously with his large eyes and — sighed. Ye Gods — that sigh! It sunk into my heart. And the hair — the wool! Could I have reached that wool I would have bathed it with my tears, in testimony of regret. But alas! it was now far beyond my grasp. As it dangled among the cordage of the bell, I fancied it alive. I fancied that it stood on end with indignation. Thus the happy-dandy Flos Aeris of Java bears, it is said, a beautiful flower, which will live when pulled up by the roots. The natives suspend it by a cord from the ceiling and enjoy its fragrance for years.
Our quarrel was now made up, and we looked about the room for an aperture through which to survey the city of Edina. Windows there were none. The sole light admitted into the gloomy chamber proceeded from a square opening, about a foot in diameter, at a height of about seven feet from the floor. Yet what will the energy of true genius not effect? I resolved to clamber up to this hole. A vast quantity of wheels, pinions, and other cabalistic — looking machinery stood opposite the hole, close to it; and through the hole there passed an iron rod from the machinery. Between the wheels and the wall where the hole lay there was barely room for my body — yet I was desperate, and determined to persevere. I called Pompey to my side.
“You perceive that aperture, Pompey. I wish to look through it. You will stand here just beneath the hole — so. Now, hold out one of your hands, Pompey, and let me step upon it — thus. Now, the other hand, Pompey, and with its aid I will get upon your shoulders.”
He did every thing I wished, and I found, upon getting up, that I could easily pass my head and neck through the aperture. The prospect was sublime. Nothing could be more magnificent. I merely paused a moment to bid Diana behave herself, and assure Pompey that I would be considerate and bear as lightly as possible upon his shoulders. I told him I would be tender of his feelings — ossi tender que beefsteak. Having done this justice to my faithful friend, I gave myself up with great zest and enthusiasm to the enjoyment of the scene which so obligingly spread itself out before my eyes.
Upon this subject, however, I shall forbear to dilate. I will not describe the city of Edinburgh. Every one has been to the city of Edinburgh. Every one has been to Edinburgh — the classic Edina. I will confine myself to the momentous details of my own lamentable adventure. Having, in some measure, satisfied my curiosity in regard to the extent, situation, and general appearance of the city, I had leisure to survey the church in which I was, and the delicate architecture of the steeple. I observed that the aperture through which I had thrust my head was an opening in the dial-plate of a gigantic clock, and must have appeared, from the street, as a large key-hole, such as we see in the face of the French watches. No doubt the true object was to admit the arm of an attendant, to adjust, when necessary, the hands of the clock from within. I observed also, with surprise, the immense size of these hands, the longest of which could not have been less than ten feet in length, and, where broadest, eight or nine inches in breadth. They were of solid steel apparently, and their edges appeared to be sharp. Having noticed these particulars, and some others, I again turned my eyes upon the glorious prospect below, and soon became absorbed in contemplation.
From this, after some minutes, I was aroused by the voice of Pompey, who declared that he could stand it no longer, and requested that I would be so kind as to come down. This was unreasonable, and I told him so in a speech of some length. He replied, but with an evident misunderstanding of my ideas upon the subject. I accordingly grew angry, and told him in plain words, that he was a fool, that he had committed an ignoramus e-clench-eye, that his notions were mere insommary Bovis, and his words little better than an ennemywerrybor’em. With this he appeared satisfied, and I resumed my contemplations.
It might have been half an hour after this altercation when, as I was deeply absorbed in the heavenly scenery beneath me, I was startled by something very cold which pressed with a gentle pressure on the back of my neck. It is needless to say that I felt inexpressibly alarmed. I knew that Pompey was beneath my feet, and that Diana was sitting, according to my explicit directions, upon her hind legs, in the farthest corner of the room. What could it be? Alas! I but too soon discovered. Turning my head gently to one side, I perceived, to my extreme horror, that the huge, glittering, scimetar-like minute-hand of the clock had, in the course of its hourly revolution, descended upon my neck. There was, I knew, not a second to be lost. I pulled back at once — but it was too late. There was no chance of forcing my head through the mouth of that terrible trap in which it was so fairly caught, and which grew narrower and narrower with a rapidity too horrible to be conceived. The agony of that moment is not to be imagined. I threw up my hands and endeavored, with all my strength, to force upward the ponderous iron bar. I might as well have tried to lift the cathedral itself. Down, down, down it came, closer and yet closer. I screamed to Pompey for aid; but he said that I had hurt his feelings by calling him ‘an ignorant old squint-eye:’ I yelled to Diana; but she only said ‘bow-wow-wow,’ and that I had told her ‘on no account to stir from the corner.’ Thus I had no relief to expect from my associates.
Meantime the ponderous and terrific Scythe of Time (for I now discovered the literal import of that classical phrase) had not stopped, nor was it likely to stop, in its career. Down and still down, it came. It had already buried its sharp edge a full inch in my flesh, and my sensations grew indistinct and confused. At one time I fancied myself in Philadelphia with the stately Dr. Moneypenny, at another in the back parlor of Mr. Blackwood receiving his invaluable instructions. And then again the sweet recollection of better and earlier times came over me, and I thought of that happy period when the world was not all a desert, and Pompey not altogether cruel.
The ticking of the machinery amused me. Amused me, I say, for my sensations now bordered upon perfect happiness, and the most trifling circumstances afforded me pleasure. The eternal click-clak, click-clak, click-clak of the clock was the most melodious of music in my ears, and occasionally even put me in mind of the graceful sermonic harangues of Dr. Ollapod. Then there were the great figures upon the dial-plate — how intelligent how intellectual, they all looked! And presently they took to dancing the Mazurka, and I think it was the figure V. who performed the most to my satisfaction. She was evidently a lady of breeding. None of your swaggerers, and nothing at all indelicate in her motions. She did the pirouette to admiration — whirling round upon her apex. I made an endeavor to hand her a chair, for I saw that she appeared fatigued with her exertions — and it was not until then that I fully perceived my lamentable situation. Lamentable indeed! The bar had buried itself two inches in my neck. I was aroused to a sense of exquisite pain. I prayed for death, and, in the agony of the moment, could not help repeating those exquisite verses of the poet Miguel De Cervantes:
Vanny Buren, tan escondida
Query no te senty venny
Pork and pleasure, delly morry
Nommy, torny, darry, widdy!
But now a new horror presented itself, and one indeed sufficient to startle the strongest nerves. My eyes, from the cruel pressure of the machine, were absolutely starting from their sockets. While I was thinking how I should possibly manage without them, one actually tumbled out of my head, and, rolling down the steep side of the steeple, lodged in the rain gutter which ran along the eaves of the main building. The loss of the eye was not so much as the insolent air of independence and contempt with which it regarded me after it was out. There it lay in the gutter just under my nose, and the airs it gave itself would have been ridiculous had they not been disgusting. Such a winking and blinking were never before seen. This behavior on the part of my eye in the gutter was not only irritating on account of its manifest insolence and shameful ingratitude, but was also exceedingly inconvenient on account of the sympathy which always exists between two eyes of the same head, however far apart. I was forced, in a manner, to wink and to blink, whether I would or not, in exact concert with the scoundrelly thing that lay just under my nose. I was presently relieved, however, by the dropping out of the other eye. In falling it took the same direction (possibly a concerted plot) as its fellow. Both rolled out of the gutter together, and in truth I was very glad to get rid of them.
The bar was now four inches and a half deep in my neck, and there was only a little bit of skin to cut through. My sensations were those of entire happiness, for I felt that in a few minutes, at farthest, I should be relieved from my disagreeable situation. And in this expectation I was not at all deceived. At twenty-five minutes past five in the afternoon, precisely, the huge minute-hand had proceeded sufficiently far on its terrible revolution to sever the small remainder of my neck. I was not sorry to see the head which had occasioned me so much embarrassment at length make a final separation from my body. It first rolled down the side of the steeple, then lodge, for a few seconds, in the gutter, and then made its way, with a plunge, into the middle of the street.
I will candidly confess that my feelings were now of the most singular — nay, of the most mysterious, the most perplexing and incomprehensible character. My senses were here and there at one and the same moment. With my head I imagined, at one time, that I, the head, was the real Signora Psyche Zenobia — at another I felt convinced that myself, the body, was the proper identity. To clear my ideas on this topic I felt in my pocket for my snuff-box, but, upon getting it, and endeavoring to apply a pinch of its grateful contents in the ordinary manner, I became immediately aware of my peculiar deficiency, and threw the box at once down to my head. It took a pinch with great satisfaction, and smiled me an acknowledgement in return. Shortly afterward it made me a speech, which I could hear but indistinctly without ears. I gathered enough, however, to know that it was astonished at my wishing to remain alive under such circumstances. In the concluding sentences it quoted the noble words of Ariosto–
Il pover hommy che non sera corty
And have a combat tenty erry morty; thus comparing me to the hero who, in the heat of the combat, not perceiving that he was dead, continued to contest the battle with inextinguishable valor. There was nothing now to prevent my getting down from my elevation, and I did so. What it was that Pompey saw so very peculiar in my appearance I have never yet been able to find out. The fellow opened his mouth from ear to ear, and shut his two eyes as if he were endeavoring to crack nuts between the lids. Finally, throwing off his overcoat, he made one spring for the staircase and disappeared. I hurled after the scoundrel these vehement words of Demosthenes-
Andrew O’Phlegethon, you really make haste to fly, and then turned to the darling of my heart, to the one-eyed! the shaggy-haired Diana. Alas! what a horrible vision affronted my eyes? Was that a rat I saw skulking into his hole? Are these the picked bones of the little angel who has been cruelly devoured by the monster? Ye gods! and what do I behold — is that the departed spirit, the shade, the ghost, of my beloved puppy, which I perceive sitting with a grace so melancholy, in the corner? Hearken! for she speaks, and, heavens! it is in the German of Schiller-
“Unt stubby duk, so stubby dun
Duk she! duk she!” Alas! and are not her words too true?
“And if I died, at least I died
For thee — for thee.” Sweet creature! she too has sacrificed herself in my behalf. Dogless, niggerless, headless, what now remains for the unhappy Signora Psyche Zenobia? Alas — nothing! I have done.
मैं सुनकर चौंक पड़ा, कितनी कारुणिक आवाज थी। देखा तो एक 9-10 बरस का लडक़ा अन्धे की लाठी पकड़े खड़ा था। मैंने कहा-सूरदास, यह तुमको कहाँ से मिल गया?
अन्धे को अन्धा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली लगी। इस सम्बोधन में उस दीन के अभाव की ओर सहानुभूति और सम्मान की भावना थी, व्यंग न था।
उसने कहा-बाबूजी, यह मेरा लडक़ा है-मुझ अन्धे की लकड़ी है। इसके रहने से पेट भर खाने को माँग सकता हूँ और दबने-कुचलने से भी बच जाता हूँ।
मैंने उसे इकन्नी दी, बालक ने उत्साह से कहा-अहा इकन्नी! बुड्ढे ने कहा-दाता, जुग-जुग जियो!
मैं आगे बढ़ा और सोचता जाता था, इतने कष्ट से जो जीवन बिता रहा है, उसके विचार में भी जीवन ही सबसे अमूल्य वस्तु है, हे भगवान्!
दीनानाथ करी क्यों देरी?-दशाश्वमेध की ओर जाते हुए मेरे कानों में एक प्रौढ़ स्वर सुनाई पड़ा। उसमें सच्ची विनय थी-वही जो तुलसीदास की विनय-पत्रिका में ओत-प्रोत है। वही आकुलता, सान्निध्य की पुकार, प्रबल प्रहार से व्यथित की कराह! मोटर की दम्भ भरी भीषण भों-भों में विलीन होकर भी वायुमण्डल में तिरने लगी। मैं अवाक् होकर देखने लगा, वही बुड्ढा! किन्तु आज अकेला था। मैंने उसे कुछ देते हुए पूछा-क्योंजी, आज वह तुम्हारा लडक़ा कहाँ है?
बाबूजी, भीख में से कुछ पैसा चुरा कर रखता था, वही लेकर भाग गया, न जाने कहाँ गया!-उन फूटी आँखों से पानी बहने लगा। मैंने पूछा-उसका पता नहीं लगा? कितने दिन हुए?
लोग कहते हैं कि वह कलकत्ता भाग गया! उस नटखट लड़के पर क्रोध से भरा हुआ मैं घाट की ओर बढ़ा, वहाँ एक व्यास जी श्रवण-चरित की कथा कह रहे थे। मैं सुनते-सुनते उस बालक पर अधिक उत्तेजित हो उठा। देखा तो पानी की कल का धुआँ पूर्व के आकाश में अजगर की तरह फैल रहा था।
कई महीने बीतने पर चौक में वही बुड्ढा दिखाई पड़ा, उसकी लाठी पकड़े वही लडक़ा अकड़ा हुआ खड़ा था। मैंने क्रोध से पूछा-क्यों बे, तू अन्धे पिता को छोड़कर कहाँ भागा था? वह मुस्कराते हुए बोला-बाबू जी, नौकरी खोजने गया था। मेरा क्रोध उसकी कर्तव्य-बुद्धि से शान्त हुआ। मैंने उसे कुछ देते हुए कहा-लड़के, तेरी यही नौकरी है, तू अपने बाप को छोड़कर न भागा कर।
बुड्ढा बोल उठा-बाबूजी, अब यह नहीं भाग सकेगा, इसके पैरों में बेड़ी डाल दी गई है। मैंने घृणा और आश्चर्य से देखा, सचमुच उसके पैरों में बेड़ी थी। बालक बहुत धीरे-धीरे चल सकता था। मैंने मन-ही-मन कहा-हे भगवान्, भीख मँगवाने के लिए, बाप अपने बेटे के पैर में बेड़ी भी डाल सकता है और वह नटखट फिर भी मुस्कराता था। संसार, तेरी जय हो!
मैं आगे बढ़ गया।
मैं एक सज्जन की प्रतीक्षा में खड़ा था, आज नाव पर घूमने का उनसे निश्चय हो चुका था। गाड़ी, मोटर, ताँगे टकराते-टकराते भागे जा रहे थे, सब जैसे व्याकुल। मैं दार्शनिक की तरह उनकी चञ्चलता की आलोचना कर रहा था! सिरस के वृक्ष की आड़ में फिर वही कण्ठ-स्वर सुनायी पड़ा। बुड्ढे ने कहा-बेटा, तीन दिन और न ले पैसा, मैंने रामदास से कहा है सात आने में तेरा कुरता बन जायगा, अब ठण्ड पड़ने लगी है। उसने ठुनकते हुए कहा-नहीं, आज मुझे दो पैसा दो, मैं कचालू खाऊँगा, वह देखो उस पटरी पर बिक रहा है। बालक के मुँह और आँख में पानी भरा था। दुर्भाग्य से बुड्ढा उसे पैसा नहीं दे सकता था। वह न देने के लिए हठ करता ही रहा; परन्तु बालक की ही विजय हुई। वह पैसा लेकर सड़क की उस पटरी पर चला। उसके बेड़ी से जकड़े हुए पैर पैंतरा काट कर चल रहे थे। जैसे युद्ध-विजय के लिए।
नवीन बाबू चालिस मील की स्पीड से मोटर अपने हाथ से दौड़ा रहे थे। दर्शकों की चीत्कार से बालक गिर पड़ा, भीड़ दौड़ी। मोटर निकल गई और यह बुड्ढा विकल हो रोने लगा-अन्धा किधर जाय!
एक ने कहा-चोट अधिक नहीं।
दूसरे ने कहा-हत्यारे ने बेड़ी पहना दी है, नहीं तो क्यों चोट खाता।
बुड्ढे ने कहा-काट दो बेड़ी बाबा, मुझे न चाहिए।
और मैंने हतबुद्धि होकर देखा कि बालक के प्राण-पखेरू अपनी बेड़ी काट चुके थे।