Tag: Short

Short: Literature, Stories!

  • खोया हुआ मोती

    खोया हुआ मोती

    खोया हुआ मोती


    प्रिय दोस्तों! यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]

    तो अब रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई “खोया हुआ मोती” पर आते हैं, तो कहानी शुरू होती है। मेरी नौका ने स्नान-घाट की टूटी-फूटी सीढ़ियों के समीप लंगर डाला। सूर्यास्त हो चुका था। नाविक नौका के तख्ते पर ही मगरिब (सूर्यास्त) की नमाज अदा करने लगा। प्रत्येक सजदे के पश्चात् उसकी काली छाया सिंदूरी आकाश के नीचे एक चमक के समान खिंच जाती।

    नदी के किनारे एक जीर्ण-शीर्ण इमारत खड़ी थी, जिसका छज्जा इस प्रकार झुका हुआ था कि उसके गिर पड़ने की हर घड़ी भारी शंका रहती थी। उसके द्वारों और खिड़कियों के किवाड़ बहुत पुराने और ढीले हो चुके थे। चहुं ओर शून्यता छाई हुई थी। उस शून्य वातावरण में सहसा एक मनुष्य की आवाज मेरे कानों में सुनाई पड़ी और मैं कांप उठा।

    ”आप कहां से आ रहे हैं?”

    मैंने गर्दन घुमाकर देखा तो एक पीले, लम्बे और वृध्द मनुष्य की शक्ल दिखाई पड़ी जिसकी हड्डि‍यां निकली हुई थीं, दुर्भाग्य के लक्षण सिर से पैर तक प्रकट हो रहे थे। वह मुझसे दो-चार सीढ़ियां ऊपर खड़ा था। सिल्क का मैला कोट और उसके नीचे एक मैली-सी धोती बांधे हुए। उसका निर्बल शरीर, उतरा हुआ मुख और लड़खड़ाते हुए कदम बता रहे थे कि उस क्षुधा-पीड़ित मनुष्य को शुध्द वायु से अधिक भोजन की आवश्यकता है।

    ”मैं रांची से आ रहा हूं।’

    यह सुनकर वह मेरे बराबर उसी सीढ़ी पर आ बैठा।

    ”और आपका काम?”

    ”व्यापार करता हूं।”

    ”काहे का?”

    ”इमारती लकड़ी, रेशम और त्रिफला का।”

    ”आपका नाम क्या है?”

    एक क्षण सोने के बाद मैंने उसे अपना एक बनावटी नाम बता दिया। किन्तु वह अब मुझे एक-टक देख रहा था।

    ‘परन्तु आपका यहां आना कैसे हुआ? केवल मनोरंजन के लिए या वायु-परिवर्तन के लिए?”

    मैंने कहा-”वायु-परिवर्तन के लिए।’

    ”यह भी खूब कही। मैं लगभग छ: वर्ष से प्रतिदिन यहां की ताजी वायु पेट भरकर खा रहा हूं और साथ ही पन्द्रह ग्रेन कुनैन भी; परन्तु अन्तर कुछ नहीं हुआ। कोई लाभ दिखाई नहीं देता।”

    ”किन्तु रांची और यहां के जलवायु में तो पृथ्वी और आकाश का अन्तर है।”

    ”इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आप यहां ठहरे किस स्थान पर हैं? क्या इसी मकान में?”

    सम्भवत: उस व्यक्ति को संदेह हो गया था कि मुझे उसके किसी गड़े हुए धन का कहीं से सुराग मिल गया है और मैं उस स्थान पर ठहरने के लिए नहीं; बल्कि उसके गड़े हुए धन पर अपना अधिकार जमाने आया हूं। मकान की भलाई-बुराई के सम्बन्ध में एक शब्द तक कहे बिना उसने अपने उस मकान के स्वामी की पन्द्रह साल पूर्व की एक कथा सुनानी आरम्भ कर दी-

    ”उसकी गंजी खोपड़ी में गहरी और चमकदार काली आंखें मुझे कॉलरिज के पुराने नाविक का स्मरण करा रही थीं। वह एक स्थानीय स्कूल में अध्यापक था।

    ”नाविक ने समाज से निवृत्त होकर रोटी बनानी आरम्भ कर दी। सूर्यास्त होने के समय आकाश के सिंदूरी रंग पर अधिकार जमाने वाली अंधेरी में वह खण्डहर- भवन एक विचित्र-सा भयावह दृश्य प्रदर्शित कर रहा था।

    ”मेरे पास सीढ़ी पर बैठे हुए उस दुबले और लम्बे स्कूल मास्टर ने कहा- ”मेरे इस गांव में आने से लगभग दस साल पूर्व एक व्यक्ति फणीभूषण सहाय इस मकान में रहता था। उसका चाचा दुर्गामोहन बिना अपने किसी उत्तराधिकारी के मर गया। जिसकी सम्पूर्ण संपत्ति और विस्तृत व्यापार का अकेला वही अधिकारी था।

    ”पाश्चात्य शिक्षा और नई सभ्यता का भूत फणीभूषण पर सवार था। कॉलेज में कई वर्षों तक शिक्षा प्राप्त कर चुका था। वह अंग्रेजों की भांति कोठी में जूता पहने फिरा करता था, यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ये लोग उनके साथ कोई व्यापारिक रियायत देने के रवादार न थे। वे भली-भांति जानते थे कि फणीभूषण आखिर को नए बंगाल की वायु में सांस ले रहा है।

    ”इसके अतिरिक्त एक और बला उसके सिर पर सवार थी। अर्थात् उसकी पत्नी परम सुन्दरी थी। यह सुन्दर बला और पाश्चात्य शिक्षा दोनों उसके पीछे ऐसी पड़ी थीं कि तोबा भली! खर्च सीमा से बाहर। तनिक शरीर गर्म हुआ और झट सरकारी डॉक्टर खट-खट करते आ पहुँचे।

    ”विवाह सम्भवत: आपका भी हो चुका है। आपको भी वास्तव में यह अनुभव हो गया है कि स्त्री कठोर स्वभाव वाले पति को सर्वदा पसन्द करती है। वह अभागा व्यक्ति जो अपनी पत्नी के प्रेम से वंचित हो, यह न समझ बैठे कि वह इस संपत्ति से माला-माल नहीं या सौन्दर्य से वंचित है। विश्वास कीजिये वह अपनी सीमा से अधिक कोमल प्रकृति और प्रेम के कारण इसी दुर्भाग्य में फंसा हुआ है। मैंने इस विषय में खूब सोचा है और इस तथ्य पर पहुंचा हूं और यह है भी ठीक। पूछिये क्यों? लीजिये इस प्रश्न का संक्षिप्त और विस्तृत उत्तर इस प्रकार है।

    ”यह तो आप अवश्य मानेंगे कि कोई भी व्यक्ति उस समय तक वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि उसे अपने जन्मजात विचार और स्वाभाविक योग्यताओं के प्रकट करने के लिए एक विस्तृत क्षेत्र प्राप्त न हो। हरिण को आपने देखा है वह अपने सींगों को वृक्ष से रगड़कर आनन्द प्राप्त करता है, नर्म और नाजुक केले के खम्भे से नहीं। सृष्टि के आरम्भ से ही नारी-जाति इस जंगली और कठोर-स्वभाव पुरुष को जीतने के लिए विशेष ढंग सीखती चली आ रही है। यदि उसे पहले ही से आज्ञाकारी पति मिल जाये तो उसके वे आकर्षक हथकंडे जो उसको मां और दादियों से बपौती रूप में मिले हैं, और लम्बे समय से निरन्तर चलते रहने के कारण सीमा से अधिक सत्य भी सिध्द हुए हैं, न केवल बेकार रह जाते हैं बल्कि स्त्री को भार-स्वरूप मालूम होने लगते हैं।

    ”स्त्री अपने आकर्षक सौन्दर्य के बल पर पुरुष का प्रेम और उसकी आज्ञाकारिता प्राप्त करना चाहती है। किन्तु जो पति स्वयं ही उनके सौन्दर्य के सामने झुक जाये, वह वास्तव में दुर्भाग्यशाली होता है, और उससे अधिक उसकी पत्नी।

    ”वर्तमान सभ्यता ने ईश्वर-प्रदत्त उपहार अर्थात् ”पुरुष की सुन्दर कठोरता’ उससे छीन ली है। पुरुष ने अपनी निर्बलता से स्त्री के दाम्पत्य-बन्धन को बड़ी सीमा तक ढीला कर दिया है। मेरी इस कहानी का अभागा फणीभूषण भी इस नवीन सभ्यता की छलना से छला हुआ था और यही कारण था कि न वह अपने व्यापार में सफल था और न गृहस्थ जीवन से सन्तुष्ट। यदि एक ओर वह अपने व्यापार में लाभ से बेखबर था तो दूसरी ओर अपनी पत्नी के पतित्व-अधिकार से वंचित।

    ”फणीभूषण की पत्नी मनीमलिका को प्रेम और विलास-सामग्री बेमांगे मिली थी। उसे सुन्दर और बहुमूल्य साड़ियों के लिए अनुनय-विनय तो क्या पति से कहने की आवश्यकता न होती थी। सोने के आभूषणों के लिए उसे झुकना न पड़ता था। इसलिए उसके स्त्रियोचित स्वभाव को आज्ञा देने वाले स्वर का जीवन में कभी आभास न हुआ था, यही कारण था कि वह अपनी प्रेममयी भावनाओं में आवेश की स्थिति उत्पन्न न कर पाती थी। उसके कान-”लो स्वीकार करो’ के मधुर शब्दों से परिचित थे; किन्तु उसके होंठ ‘लाओ’ और ‘दो’ से सर्वथा अपरिचित। उसके सीधे स्वभाव का पति इस मिथ्या-भावना की कहावत से प्रसन्न था कि ‘कर्म किये जाओ फल की कामना मत करो, तुम्हारा परिश्रम कभी अकारथ नहीं जाएगा’। वह इसी मिथ्या भावना के पीछे हाथ-पैर मारे जा रहा था। परिणाम यह हुआ कि उसकी पत्नी उसे ऐसी मशीन समझने लगी जो बिना चलाए चलती है। स्वयं ही बिना कुछ कष्ट किये सुन्दर साड़ियां और बहुमूल्य आभूषण बनाकर उसके कदमों पर डालती रहती। उसके पुर्जे इतने शक्तिशाली और टिकाऊ थे कि कभी भी उसको तेल देने की आवश्यकता न होती।

    ”फणीभूषण की जन्मभूमि और रहने का स्थान समीप ही एक देहात का गांव था, किन्तु उसके चाचा के व्यापार का मुख्य स्थान यही शहर था। इसी कारण उसकी आयु का अधिक भाग यहीं व्यतीत हुआ था। वैसे मां मर चुकी थी; किन्तु मौसी और मामियां आदि ईश्वर की कृपा से विद्यमान थीं। परन्तु वह विवाह के बाद ही फौरन मनीमलिका को अपने साथ ले आया। उसने विवाह अपने सुख के लिए किया था न कि अपने सम्बन्धियों की सेवा के लिए।

    ”पत्नी और उसके अधिकारों में पृथ्वी-आकाश का अन्तर है। पत्नी को प्राप्त कर लेना और फिर उसकी देख-भाल करना, उसको अपना बनाने के लिए काफी नहीं हुआ करता।

    ”मनीमलिका सोसायटी की अधिक भक्त न थी। इसलिए व्यर्थ का खर्च भी न करती थी, बल्कि इसके प्रतिकूल बड़ी सावधानी रखने वाली थी। जो उपहार फणीभूषण उसको एक बार ला देता फिर क्या मजाल कि उसको हवा भी लग जाए। वह सावधानी से सब रख दिया जाता। कभी ऐसा नहीं देखा गया कि किसी पड़ोसिन को उसने भोजन पर बुलाया हो। वह उपहार या भेंट लेने-देने के पक्ष में भी न थी।

    ”सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि चौबीस साल की आयु में भी मनीमलिका चौदह वर्ष की सुन्दर युवती दिखाई देती थी। ऐसा प्रतीत होता मानो उसका रूप-लावण्य केवल स्थायी ही नहीं, बल्कि चिरस्थायी रहने वाला है। मनीमलिका के पार्श्व में हृदय न था बर्फ का टुकड़ा था, जिस पर प्रेम की तनिक भी तपन न पहुंची थी। फिर वह पिघलता क्यों और उसका यौवन ढलता किस प्रकार?

    ”जो वृक्ष पत्तों से लदा होता है प्राय: फल से वंचित रहता है। मनीमलिका का सौन्दर्य भी फलहीन था। वह संतानहीन थी। रख-रखाव और व्यक्तिगत देख-रेख करती भी तो काहे की? उसका सारा ध्यान अपने आभूषणों पर ही केन्द्रित था। संतान होती तो वसन्त की मीठी-मीठी धूप की भांति उसके बर्फ के हृदय को पिघलाती और वह निर्मल जल उसके दाम्पत्य-जीवन के मुरझाए हुए वृक्ष को हरा कर देता।

    ”मनीमलिका गृहस्थ के काम-काज और परिश्रम से भी न कतराती थी। जो काम वह स्वयं कर सकती उसका पारिश्रमिक देना उसे खलता था। दूसरों के कष्ट का न उसे ध्यान था और न नाते-रिश्तेदारों की चिन्ता। उसको अपने काम से काम था। इस शांत जीवन के कारण वह स्वस्थ और सुखी थी। न कभी चिन्ता होती थी, न कोई कष्ट।

    ‘प्राय: पति इसे सन्तोष तो क्या सौभाग्य समझेंगे? क्योंकि जो पत्नी हर समय फरमाइशें लेकर पति की छाती पर चढ़ती रहे वह सारे गृहस्थ के लिए एक रोग सिध्द होती है।

    ”कम-से-कम मेरी तो यही सम्मति है कि सीमा से बढ़ा हुआ प्रेम पत्नी के लिए सम्भवत: गौरव की बात हो, किन्तु पति के लिए एक विपत्ति से कम सोचिए तो सही कि क्या पुरुष का यही काम रह गया है कि वह हर समय यही तोलता-जोखता रहे कि उसकी पत्नी उसे कितना चाहती है, मेरा तो यह दृष्टिकोण है कि गृहस्थ का जीवन उस समय अच्छा व्यतीत होता है जब पति अपना काम करे और पत्नी अपना।

    ”स्त्री का सौन्दर्य और प्रेम यानी तिरिया-चरित्र पुरुष की बुध्दि से परे की चीज है, किन्तु स्त्री-पुरुष के प्रेम के उतार-चढ़ाव और उसके न्यूनाधिक अन्तर को गम्भीर दृष्टि से देखती रहती है। वह शब्दों के लहजे और छिपी हुई बात के अर्थ को झट अलग कर लेती है। इसका कारण केवल यह है कि जीवन के व्यापार में स्त्री की पूंजी लेकर केवल पुरुष का प्रेम है। यही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है। यदि वह पुरुष की रुचि के वायु के प्रवाह को अपनी जीवन-नैया के वितान से स्पर्श करने में सफल हो जाए तो विश्वस्तत: नैया अभिप्राय के तट तक पहुंच जाती है। इसीलिए प्रेम का कल्पना-यन्त्र पुरुष के हृदय में नहीं, स्त्री के हृदय में लगाया गया है।

    ”प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की रुचि में स्पष्ट रूप से अन्तर रखा है, किन्तु पाश्चात्य सभ्यता इस स्त्री-पुरुष के अन्तर को मिटा देने पर तुली हुई है। स्त्री पुरुष बनी जा रही है और पुरुष स्त्री। स्त्री-पुरुष के चरित्र तथा उसके कार्य-क्षेत्र को अपने जीवन की पूंजी और पुरुष स्त्रियोचित चरित्र तथा नारी-कर्म-क्षेत्र को अपने जीवन का आनन्द समझने लगे हैं। इसलिए यह कठिन हो गया है कि विवाह के समय कोई यह कह सके कि वधू स्त्री है या स्त्रीनुमा स्त्री पुरुष। इसी प्रकार स्त्री अनुमान लगा सकती है कि जिसके पल्ले वह बंध रही है वह पुरुष है या पुरुषनुमा स्त्री। इसलिए कि अन्तर केवल हृदय का है। पर क्या जाने कि पुरुष का हृदय मरदाना है या जनाना?

    ”मैं बहुत देर से आपको शुष्क बातें सुना रहा हूं, परन्तु किसी सीमा तक क्षमा के योग्य भी हूं। मैं अपनों से दूर निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा हूं। मेरी दशा उस तमाशा देखने वाले दर्शक के समान है जो दूर से गृहस्थ-जीवन का तमाशा देख रहा हो और वह उसके गुणों से लाभ उठाकर केवल उसके लिए कुछ सोच सकता हो। इसीलिए दाम्पत्य-जीवन पर मेरे विचार अत्यन्त गम्भीर हैं। मैं अपने शिष्यों के सम्मुख तो वह विचार प्रकट कर नहीं सकता, इसी कारण आपके सामने प्रकट करके अपने हृदय को हल्का कर रहा हूं। आप अवकाश के समय इन पर विचार करें।

    ”सारांश यह है कि यद्यपि गृहस्थ-जीवन में प्रकट रूप में कोई कष्ट फणीभूषण को न था। समय पर भोजन मिल जाता, घर का प्रबन्ध सुचारु रूप से चल रहा था, किन्तु फिर भी एक प्रकार की विकलता और अविश्वास उसके हृदय में समाया हुआ था और वह नहीं समझ पाता था कि वह है क्या? उसकी दशा उस बच्चे के समान थी जो रो रहा है और नहीं जानता कि उसके हृदय में कोई इच्छा है या नहीं।

    ”अपनी जीवन-संगिनी के हृदय के स्नेह-रिक्त स्थान को वह सुनहरे और मूल्यवान आभूषणों तथा इसी प्रकार के अन्य उपहारों से भर देना चाहता था।

    ”उसका चाचा दुर्गामोहन दूसरी तरह का व्यक्ति था। वह अपनी पत्नी के प्रेम को किसी भी मूल्य पर क्रय करने के पक्ष में न था और न ही वह प्रेम के विषय में चिड़चिड़े स्वभाव का था। फिर भी अपनी जीवन-संगिनी के प्रेम की प्राप्ति के लिए भाग्यशाली था।

    ”जिस प्रकार एक सफल दुकानदार को कहीं तक बे-लिहाज होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार एक सफल पति बनने के लिए पुरुष को कहीं तक कठोर स्वभाव बन जाना भी अति आवश्यक है। सानुरोध आपको मैं यह सीख देता हूं।”

    ठीक उसी समय गीदड़ों की चीख-पुकार जंगल में सुनाई दी। ऐसा ज्ञान होता था कि या तो वे उस स्कूल के अध्यापक के दाम्पत्य-जीवन के मनोविज्ञान पर घिनौना परिहास कर रहे हैं या फणीभूषण की कहानी के प्रवाह को कुछ क्षणों के लिए उस चीख-पुकार से रोक देना चाहते हैं। फिर भी बहुत जल्दी वह चीख-पुकार रुक गई और पहले से भी गहन अंधेरी और शून्यता वायुमण्डल पर छा गई, किन्तु स्कूल के अध्यापक ने पुन: कथा आरम्भ की-

    ”सहसा फणीभूषण के बड़े व्यवसाय में शिक्षाप्रद अवनति दृष्टिगोचर हुई। यह क्यों हुआ? इसका उत्तर मेरी बुध्दि से परे है। संक्षिप्त में यह कि कुसमय ने उसके लिए बाजार में साख रखना कठिन कर दिया। यदि किसी प्रकार कुछ दिनों के लिए वह एक बड़ी पूंजी प्राप्त करके मण्डियों में फैला सकता तो सम्भव था कि बाजार से माल को न खरीदने के तूफान से बच निकलता, किन्तु इतनी बड़ी रकम का तुरन्त प्रबन्ध खाला का घर न था। यदि स्थानीय साहूकारों से कर्ज मांगता तो अनेक प्रकार की अफवाहें फैल जातीं और उसकी साख को असहनीय हानि पहुंचती। यदि पत्र-व्यवहार से भुगतान का ढंग करता तो रुक्का या पर्चे के बिना संभव न था और इससे उसकी ख्याति को बहुत बड़ा आघात पहुंचने की सम्भावना थी। केवल एक युक्ति थी कि पत्नी के आभूषणों पर रुपया प्राप्त किया जाए और यह विचार उसके हृदय में दृढ़ हो गया।

    ”फणीभूषण मनीमलिका के पास गया। परन्तु वह ऐसा पति न था कि पत्नी से स्पष्ट और सबलता से कह सके। दुर्भाग्यवश उसे अपनी पत्नी से उतना घनिष्ठ प्रेम था जैसा कि उपन्यास के किसी नायक को नायिका से हो सकता है।

    ”सूर्य का आकर्षण पृथ्वी पर बहुत अधिक है, किन्तु अधिक प्रभावशाली नहीं। यही दशा फणीभूषण के प्रेम की थी। उस प्रेम का मनीमलिका के हृदय पर कोई प्रभाव न था। किन्तु मरता क्या न करता, आर्थिक कठिनाई की चर्चा, प्रोनोट, कर्जे का कागज, बाजार के उतार-चढ़ाव की दशा, इन सब बातों को कम्पित और अस्वाभाविक स्वर में फणीभूषण ने अपनी पत्नी को बताया। झूठे मान, असत्य विचार और भावावेश में साधारण-सी समस्या जटिल बन गई। अस्पष्ट शब्दों में विषय की गम्भीरता बता कर डरते-डरते अभागे फणीभूषण ने कहा-”तुम्हारे आभूषण!”

    ”मनीमलिका ने न ‘हां’ कही और न ‘ना’ और न उसके मुख से कुछ ज्ञात होता था। उस पर गहरा मौन छाया हुआ था। फणीभूषण के हृदय को गहरा आघात पहुंचा। किन्तु उसने प्रकट न होने दिया। उसमें पुरुषों का-सा वह साहस न था कि प्रत्येक वस्तु का वह प्रतिदिन निरीक्षण करता। उसके इन्कार पर उसने किसी प्रकार की चिन्ता प्रदर्शित न की। वह ऐसे विचारों का व्यक्ति था कि प्रेम के जगत में शक्ति और आधिक्य से काम नहीं चल सकता। पत्नी की स्वीकृति के बिना वह आभूषणों को छूना भी पाप समझता था। इसलिए निराश होकर रुपये की प्राप्ति के लिए युक्तियां सोचकर कलकत्ता चला गया।”

    ”पत्नी अपने पति को प्राय: जानती है, उसकी नस-नस से परिचित होती है, पर पति अपनी पत्नी के चारित्रय का इतना गम्भीर अध्ययन नहीं कर सकता। यदि पति कुछ गम्भीर व्यक्ति हो तो पत्नी के चरित्र के कुछ भाग उसकी तीक्ष्ण दृष्टि से बचाकर जान लेता है। सम्भवत: यह सत्य है कि मनीमलिका ने फणीभूषण को अच्छी तरह न समझा। एक पाश्चात्य व्यक्ति का व्यक्तित्व मूर्ख स्त्री के अन्धविश्वास- जैसे जीवन और उसकी समझबूझ से प्राय: ऊंचा होता है। वह स्वयं स्त्री की भांति एक रोमांचकारी व्यक्तित्व बनकर रह जाता है और इसी कारण पुरुष की उन दशाओं में से किसी में भी फणीभूषण को पूरी तरह सम्मिलित नहीं किया जा सकता।

    ”मूर्ख-अन्धा-जंगली-”

    ”मनीमलिका ने अपने बड़े सलाहकार मधुसूदन को बुलाया। यह दूर के रिश्ते से चचेरा भाई था और फणीभूषण के व्यापार में एक आसामी की देख-रेख पर नियुक्त था। योग्यता के कारण नहीं, बल्कि रिश्तेदारी के जोर पर वह उस आसामी पर अधिकार जमाये हुए था। काम की चतुराई के कारण नहीं, बल्कि रिश्तेदारी की धौंस में हर माह वेतन से भी अधिक रकम ले उड़ता था। मनीमलिका ने सारी रामकहानी उसके सामने वर्णन की और अन्त में पूछा-”क्या करूं, नेक सलाह दो।”

    ”मधु ने बुध्दिमत्त और दूरदर्शिता के ढंग से सिर हिलाकर कहा-”मेरा माथा ठनकता है, इस मामले में कुशल दिखाई नहीं देती।’

    ”सांसारिक बुध्दिहीन व्यक्तियों को हर कार्य में सन्देह ही दिखाई दिया करता है। उनको किसी काम में कुशल नहीं दिखाई देती।

    ”फणीभूषण को रुपया तो मिलने से रहा, अन्त में तुम्हें आभूषणों से भी हाथ धोने पड़ेंगे।’

    ”सांसारिक समस्याओं और पुरुष तथा नारी के सम्बन्ध में जो मनीमलिका के अपने व्यक्तिगत विचार थे, उनके प्रकाश में मधु के निकाले हुए परिणाम का प्रथम भाग सम्भावित और दूसरा सत्य मालूम होता था। विश्वास उसके हृदय से जाता रहा था, सन्तान उसके थी ही नहीं। बाकी रहा पति, वह किसी गिनती में ही न था। अत: उसका सम्पूर्ण ध्यान अपने आभूषणों पर केन्द्रित था। इन्हीं से उसके हृदय की प्रसन्नता थी, ये ही उसको सन्तान के समान प्रिय थे। सन्तान को मां से छीन लीजिए फिर देखिए ममता की क्या दशा होती है। यही दशा मनीमलिका की थी। उसका यह विचार था कि उसके आभूषण पति के मनसूबों की भेंट हो जायेंगे।

    ”फिर मुझे क्या करना चाहिए?”

    ”अभी मैके चली जाओ, सारे आभूषण वहां छोड़ आओ।’ चालाक मधु ने कहा।

    ”इस प्रकार उसकी हांडी को भी बघार लगता है। यदि सारे नहीं तो कुछ आभूषण मधु को अपने हत्थे चढ़ने की भी आशा थी। मनीमलिका उसी समय सहमत हो गई।

    बढ़ते हुए अन्धकार से स्कूल के अध्यापक पर भी गम्भीरता छा गई थी, किन्तु कुछ क्षणों के पश्चात् उसने फिर वर्णन आरम्भ किया-

    ”झुटपुटे के समय जबकि सावन की घटाएं आकाश पर डेरा जमाए हुए थीं वर्षा मूसलाधर हो रही थी, एक नौका ने रेतीली सीढ़ियों पर लंगर डाला। दूसरे दिन प्रात: घटाटोप अंधेरे में मनीमलिका आई और एक मोटी चादर में सिर से पांव तक लिपटी हुई नौका पर सवार हो गई!

    ”मधु जो रात से उसी नौका में सोया हुआ था, उसकी आहट से जाग गया।

    ” ‘आभूषणों की सन्दूकची मुझे दे दो; ताकि सुरक्षित रख लूं।’

    ” ‘अभी ठहरो जल्दी क्या है? चलो तो सही, आगे देखा जायेगा।’

    ”नौका का लंगर उठा और वह फुंकारती हुई नदी की लहरों से जूझने लगी। मनीमलिका ने सारे आभूषण एक-एक करके पहन लिये थे। सन्दूक में बन्द करके ले जाना असुरक्षित मालूम होता था। मधु हक्का-बक्का रह गया, जब उसने देखा कि मनी के पास सन्दूकची नहीं है। उसको इसकी कल्पना भी न थी कि उसने आभूषणों को अपने प्राणों से लगा रखा है।

    ”चाहे मनीमलिका ने फणीभूषण को न समझा था किन्तु मधु के चरित्र का एक बहुत ही ठीक अन्दाजा लगाया था।

    ”जाने से पहले मधु ने फणीभूषण के एक विश्वासी मुनीम को लिख भेजा था कि मैं मनीमलिका के साथ उसको मैके पहुंचाने जा रहा हूँ। यह मुनीम दुनिया का अनुभवी और बड़ी आयु का था और फणीभूषण के पिता के समय से ही उसके साथ था। उसको मनीमलिका के जाने से बहुत चिन्ता और सन्देह हुआ। उसने अपने मालिक को फौरन लिखा। वफादारी और खैरख्वाही ने उसे प्रेरणा दी और अपने पत्र में अपने मालिक को खूब खरी-खरी सुनाई। पति की लाज और दूरदर्शिता दोनों का यह अर्थ नहीं है कि पत्नी को इस प्रकार स्वतन्त्र छोड़ दिया जाये। मनीमलिका के हृदय के सन्देह को फणीभूषण समझ गया। उसे अत्यन्त दु:ख हुआ। वह इस संबंध में एक शब्द भी शिकायत का जबान पर न लाया। अपमान और कष्ट सहे, किन्तु उसने मनीमलिका पर कोई दबाव डालना उचित न समझा; किन्तु फिर भी इतना अविश्वास! वर्षों से वह मेरे एकान्त की और सांसारिक साथी रही है। आश्चर्य है कि उसने मुझे तनिक भी न समझा।

    ”इस मौके पर कोई और होता तो क्रोधावेश में न जाने क्या कर बैठता, किन्तु फणीभूषण मौन था और दु:ख प्रकट करके मनीमलिका को दुखित करना उचित न समझता था।

    ”पुरुष को चाहिए कि वह दावानल की भांति जरा-जरा-सी बात पर भड़क जाए। जिस प्रकार स्त्री सावन के बादलों की भांति बात-बात पर आंसुओं की झड़ी लगा देती है। किन्तु अब वह पहले-से दिन कहां?

    फणीभूषण ने मनीमलिका को उसकी अनुपस्थिति में बिना सूचना दिए जाने के विषय में कोई डांट-फटकार का पत्र न लिखा। बल्कि यह निश्चय कर लिया कि मरते दम तक उसके आभूषणों का नाम तक जबान पर न लायेगा। रुपये की वसूली में फणीभूषण सफल हो गया। उसके व्यापारिक रास्ते खुल गये। दस दिन के पश्चात् वह अपने घर को वापस चला, इस विचार को लिये हुए कि आभूषण मैके में छोड़कर मनीमलिका घर को वापस आ गई होगी।

    ”दस दिन पहले का तुच्छ और असफल प्रश्न का उत्तर जब मस्तानी चाल से घर में कदम रखेगा और पत्नी की दृष्टि उसकी सफलता से दमकते हुए मुख पर पड़ेगी, तो वह अपने इन्कार पर स्वयं लज्जित होगी और अपनी नादानी पर पश्चाताप प्रकट करेगी। इन विचारों में मग्न फणीभूषण शयन-कक्ष में पहुंचा। परन्तु द्वार पर ताला लगा हुआ था। ताला तुड़वाकर अन्दर घुसा तो तिजोरी के किवाड़ खुले पड़े थे।

    ”इस आघात से वह लड़खड़ा गया- ”शुभ चिन्ता और प्रेम’ उस समय उसके पास निरर्थक और अस्पष्ट शब्द थे। सोने का पिंजरा, जिसकी प्रत्येक सुनहरी तीली को उसने अपने प्राण और आन का मूल्य देकर प्राप्त किया था, टूट चुका था और खाली पड़ा था। वह अब दिवालिया था और सिवाय गहरी उसांस, आंसू और हृदय की टीस के अतिरिक्त उसके पास कुछ न था।

    ”मनीमलिका को बुलाने का ध्यान भी उसके हृदय में न आया। उसने यह निश्चय कर लिया कि वह अब चाहे आए या न आए, किन्तु वृध्द मुनीम इस निश्चय के विरुध्द था। वह अनुरोध कर रहा था कि कम-से-कम कुशल-क्षेम अवश्य मंगानी चाहिए। इतनी देरी का कोई कारण समझ में नहीं आता। उसके अनुरोध से विवश होकर मनीमलिका के मैके को आदमी भेजा गया। किन्तु वह यह अशुभ समाचार लाया कि न यहां मनीमलिका आई है न मधु।

    ”यह सुना तो पांव-तले की जमीन निकल गई। नदी-पार आदमी दौड़ाये गये। खोज और प्रयत्न में किसी प्रकार की कमी न रखी। किन्तु पता न चलना था, न चला। यह भी मालूम न हो सका कि नौका किस दिशा में गई है और नौका का नाविक कौन था।

    ”निराश फणीभूषण हृदय मसोसकर बैठ गया।”

    ”कृष्ण-जन्माष्टमी की संध्या थी। वर्षा हो रही थी। फणीभूषण शयनकक्ष में अकेला था। गांव में एक व्यक्ति भी बाकी न था। जन्माष्टमी के मेले ने गांव-का-गांव सूना कर दिया था। मेले की चहल-पहल और महाभारत के नाटक के शौक ने बच्चे से लेकर बूढ़े तक को खींच लिया था। शयन-कक्ष की खिड़की का एक किवाड़ बन्द था। फणीभूषण दीन-दुनिया से बेखबर बैठा था।

    ”संध्या का झुटपुटा रात्रि के गहन अंधेरे में परिवर्तित हो गया। किन्तु इस भयावने अंधेरे, मूसलाधर वर्षा और ठंडी वायु का उसको ध्यान भी न था। दूर से गाने की मधुर ध्वनि से उसकी श्रवण-शक्ति सर्वथा बेसुध थी।

    ”दीवार पर विष्णु और लक्ष्मी के चित्र लगे हुए थे। फर्श साफ था और प्रत्येक वस्तु उपयुक्त स्थान पर रखी हुई थी।

    ”पलंग के समीप एक खूंटी पर एक सुन्दर और आकर्षक साड़ी लटकी हुई थी। सिरहाने एक छोटी-सी मेज पर पान का बीड़ा स्वयं मनीमलिका के हाथ का बना हुआ रखा-रखा सूख चुका था।

    ”विभिन्न वस्तुएं सलीके से अपने-अपने स्थान पर रखी हुई थीं। एक ताक में मनीमलिका का प्रिय लैम्प रखा हुआ था। जिसको वह अपने हाथ से प्रकाशित किया करती थी और जो उसकी अन्तिम विदाई का स्मरण करा रहा था। मनी की स्मृति में इन सम्पूर्ण वस्तुओं का मौन-रुदन उस कमरे को कामना का शोक-स्थल बनाए हुए था। फणीभूषण का हृदय स्वत: कह रहा था-”प्यारी मनी, आओ और अपने प्राणमय सौन्दर्य से इन सब में प्राण फूंक दो।’

    ”कहीं आधी रात के लगभग जाकर बूंदों की तड़तड़ थमी। किन्तु फणीभूषण उसी विचार में खोया बैठा था।

    ”अंधेरी रात के असीमित धुंधले वायुमण्डल पर मृत्यु की राजधनी का सिक्का चल रहा था। फणीभूषण की दुखित आत्मा का रुग्ण स्वर इतना पीड़ामय था कि यदि मृत्यु की नींद सोने वाली मनीमलिका भी सुन पाये तो एक बार नेत्र खोल दे और अपने सोने के आभूषण पहने हुए उस अंधेरे में ऐसी प्रकट हो जैसे कसौटी के कठोर पत्थर पर किंचित सुनहरी रेखा।

    ”सहसा फणीभूषण के कान में किसी के पैरों की-सी आहट सुनाई दी। ऐसा मालूम होता था कि नदी-तट से वह उस घर की ओर वापस आ रही है। नदी की काली लहरें रात की अंधेरी में मालूम न होती थीं। आशा की प्रसन्नता ने उसे जीवित कर दिया। उसके नेत्र चमक उठे। उसने अंधकार के पर्दे को फाड़ना चाहा, किन्तु व्यर्थ। जितना अधिक वह नेत्र फाड़कर देखता था, अंधकार के पर्दे और अधिक गहन होते जाते थे और यह मालूम होता था कि प्रकृति इस भयावनी अन्धेरी में मनुष्य के हस्तक्षेप के विरुध्द विद्रोह कर रही है। आवाज समीप में समीपतर होती गई। यहां तक कि सीढ़ियों पर चढ़ी और सामने द्वार पर आकर रुक गई; जिस पर ताला लगा हुआ था। द्वारपाल भी मेले में गया था। द्वार पर धीमी-सी-खुट-खुट सुनाई दी। ऐसी जैसी आभूषणों से सुसज्जित स्त्री का हाथ द्वार खटखटा रहा हो। फणीभूषण सहन न कर सका। जीने से उतरकर बरामदे से होता हुआ द्वार पर पहुंचा। ताला बाहर से लगा हुआ था। सम्पूर्ण शक्ति से उसने द्वार हिलाया। शोर-गुल से उसका सपना टूटा तो वहां कुछ न था।

    ”वह पसीने में सराबोर था, हाथ-पांव ठंडे हुए थे। उसका हृदय टिमटिमाते हुए दीपक के अन्तिम प्रकाश की भांति जलकर बुझने को तैयार था।

    ”वर्षा की तड़तड़ ध्वनि के सिवाय कुछ भी सुनाई न देता था।

    ”फणीभूषण से यह ‘वास्तविकता’ किंचित मात्र भी विस्मृत न हुई थी कि उसकी अधूरी इच्छाएं पूरी होते-होते रह गईं।

    ”दूसरी रात को फिर नाटक होने वाला था, नौकर ने आज्ञा चाही तो चेतावनी दे दी कि बाहर का द्वार खुला रहे।

    ”यह कैसे हो सकता है। विभिन्न स्वभाव के व्यक्ति बाहर से मेले में आये हुए हैं, दुर्घटना का सन्देह है।’ नौकर ने कहा।

    ” ‘नहीं, तुम जरूर खुला रखो।’

    ” ‘तो फिर मैं मेले नहीं जाऊंगा।’

    ” ‘तुम अवश्य जाओ।’

    ”नौकर आश्चर्य में था कि आखिर उनका आशय क्या है?

    ”जब संध्या हो गई और चहुंओर अन्धकार छा गया तो फणीभूषण उस खिड़की में आ बैठा। आकाश पर गहरा कोहरा छाया हुआ था, घनघोर घटाएं ऐसी तुली खड़ी थीं कि जल-थल एक कर दें, चहुंओर शून्यता का राज्य था। ऐसा मालूम होता था कि सारे संसार का वायुमण्डल मौन भाव से किसी मधुर ध्वनि को सुनने के लिए अपने कान लगाये हुए है। मेढकों की निरन्तर टर्र-टर्र और ग्रामीण स्वांगों की कम्पित ध्वनि भी उस शून्यता में बाधक न मालूम होती थी।

    ”आधी रात के लगभग फिर सम्पूर्ण शोर, चहल-पहल रात्रि के मौन में सोने लगा। रात ने अपने काले वस्त्रों पर एक और काला आवरण डाल लिया। पहली रात की भांति फणीभूषण को फिर वही आवाज सुनाई दी। उसने नदी की ओर दृष्टि उठाकर भी न देखा। ईश्वर न करे कि कोई अनाधिकार-चेष्टा द्वारा समय से पूर्व ही उसकी आकांक्षाओं का खून कर दे। वह मूर्तिवत बैठा रहा जैसे किसी ने लकड़ी की प्रतिमा को बनाकर सरेश से कुर्सी पर चिपका दिया हो।

    ”पंजों की आहट सुनसान घाट की सीढ़ियों की ओर से आकर मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुई। चक्कर वाले जीने की सीढ़ियों पर चढ़कर अन्दर के कमरे की ओर बढ़ी। लहरों की प्रतिस्पर्धा में अपने नौका को देखा होगा। इसी प्रकार फणीभूषण का हृदय बल्लियों उछलने लगा। वह आवाज बरामदे से होती हुई शयनकक्ष की ओर आई और ठीक द्वार पर आकर ठहर गई। अब केवल द्वार-प्रवेश करना शेष था।

    फणीभूषण की आकांक्षाएं मचल उठीं। संतोष का आंचल हाथ से जाता रहा, वह सहसा कुर्सी से उछल पड़ा। एक दु:खभरी चीख-‘मनी’ उसके मुख से निकली, किन्तु दु:ख है कि उसके पश्चात् मेंढकों की आवाज और वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदों की तड़तड़ के सिवा और कुछ न था।

    ”दूसरे दिन मेला छंटने लगा, दुकानें आरम्भ हो गईं; दर्शक अपने-अपने घरों को वापस जाने लगे। मेले की शोभा समाप्त हो गई।

    ”फणीभूषण ने दिन में व्रत रखा और सब नौकरों को आज्ञा दे दी कि आज रात को कोई भी व्यक्ति न रहे। नौकरों का विचार था कि हमारे मालिक आज किसी विशेष मंत्र का जाप करेंगे।

    ”संध्या-समय जब कहीं भी आकाश की टुकड़ियों पर बादल न थे वर्षा से धुले हुए वायुमंडल से सितारे चमकने लगे थे, पूर्णिमा का चांद निकला हुआ था, वायु भी मंद-मंद बह रही थी, मेले से लौटे हुए दर्शक अपनी थकान उतार रहे थे वे बेसुध हुए सो रहे थे और नदी पर कोई नौका दिखाई न देती थी।

    ”फणीभूषण उसी खिड़की में आ बैठा और तकिये से सिर लगाकर आकाश की ओर ध्यान से देखने लगा। उसको उस समय वह समय याद आया जब वह कालेज में शिक्षा प्राप्त कर रहा था। संध्या-समय चौक में लेटकर अपनी भुजा पर सिर रखकर झिलमिलाते हुए सितारों को देखकर मनीमलिका की सुन्दर कल्पना में खो जाया करता था। उन दिनों कुछ समय का बिछोह मिलन की आशाओं को अपने आंचल में लिये बहुत ही प्रिय मालूम हुआ करता था; परन्तु वह सब-कुछ अब ‘स्वप्न’ मालूम होता था।

    ”सितारे आकाश से ओझल होने लगे, अन्धकार ने दांये-बांये और नीचे-ऊपर सब ओर से पर्दे डालने आरम्भ कर दिये और ये पर्दे आंख की पलकों की भांति परस्पर मिल गये। संसार स्वप्नमय हो गया।

    ”किन्तु आज फणीभूषण पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव-सा था। वह अनुभव कर रहा था कि उसकी आशाओं के पूर्ण होने का समय समीप है।

    ”पिछली रातों की भांति किसी के पांवों की आहट फिर स्नान-घाट की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी, फणीभूषण ने आंखें बन्द कर लीं और विचारों में निमग्न हो गया। पांव की आहट मुख्य द्वार से प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण मकान में होती हुई शयनकक्ष के द्वार पर आकर विलीन हो गई। फणीभूषण का सम्पूर्ण शरीर कांपने लगा; परन्तु वह दृढ़ निश्चय कर चुका था कि अन्त तक आंखें न खोलेगा। आहट कमरे में प्रविष्ट हुई, खूंटी पर की साड़ी, ताक के लैम्प, खुले हुए पानदान और अन्य वस्तुओं के पास थोड़ी-थोड़ी देर ठहरी और अन्त में फणीभूषण की कुर्सी की ओर बढ़ी।

    ”अब फणीभूषण ने आंखें खोल दीं। धीमी-धीमी चांदनी खिड़की से आ रही थी। उसकी दृष्टि के सामने एक ढांचा, एक हड्डियों का पंजर खड़ा था। उसने रोम-रोम में छल, कलाइयों में कड़े, गले में माला। सारांश यह कि प्रत्येक जोड़ जड़ाऊ आभूषणों से दमक रहा था। सम्पूर्ण आभूषण ढीले होने के कारण निकले पड़ते थे। नेत्र वैसे ही बड़े-बड़े और चमकीले, परन्तु प्रेम-भावना से रिक्त थे। अठारह वर्ष पूर्व विवाह की रात को शहनाइयों के मधुर स्वरों में इन्हीं मोहिनी आंखों से मनीमलिका ने फणीभूषण को पहली बार देखा था। आज वही आंखें वर्षा की भींगी चांदनी में उसके मुख पर जमी हुई थी।

    ”पंजर ने दायें हाथ से संकेत किया। फणीभूषण स्वयं चल पड़ने वाली मशीन की भांति उठा और पंजर के पीछे-पीछे हो लिया। हर कदम पर उसकी हड्डि‍यां चटख रही थीं, आभूषण झंकृत हो रहे थे। वे बरामदे से होते हुए, सीढ़ियों के नीचे उतरे और उसी पथ पर हो लिये जो स्नान-घाट पर जाता था। अंधेरे में जुगनू कभी-कभी चमक उठते थे। मध्दम धीमी चांदनी वृक्षों के गहन पत्तों में से निकलने के लिए प्रयत्नशील थी।

    ”वे दोनों नदी के तट पर पहुँचे। पंजर ने सीढ़ियों से नीचे उतरना आरम्भ किया। जल पर चांदनी का प्रतिबिम्ब नदी की लहरों से क्रीड़ा कर रहा था। पंजर नदी में कूद पड़ा, उसके पीछे फणीभूषण का पांव भी नदी में गया। उसकी स्वप्न की छलना टूटी तो वहां कोई न था, केवल वृक्षों की एक पंक्ति चौकीदारी कर रही थी।

    ”अब फणीभूषण के सम्पूर्ण शरीर पर कम्पन छाया हुआ था। फणीभूषण भी एक अच्छा तैराक था, किन्तु अब उसके हाथ-पांव बस में न थे। दूसरे ही क्षण वह नदी के अथाह जल की तह में जा चुका था।”

    इस दर्द से भरे हुए अन्त पर स्कूल के अध्यापक ने कक्षा को समाप्त किया। उसकी समाप्ति पर हमें फिर एक बार शून्य वायुमंडल का अनुभव हुआ। मैं भी मौन था। अंधेरे में मेरे मुख के विचारों का अध्ययन वह न कर सकता था।

    ”क्या आप इसको कहानी कहते हैं?” उसने संदेह की मुद्रा में पूछा।

    ”नहीं! मैं तो इसे सत्य नहीं समझता, प्रथम तो इसका कारण है कि मेरी प्रकृति उपन्यास और कहानी-लेखन से ऊंची है। और दूसरा कारण यह है कि मैं ही फणीभूषण हूं।” मैंने बात को काटकर कहा।

    स्कूल का अध्यापक अधिक व्याकुल नहीं था।

    ”किन्तु आपकी पत्नी का नाम?” उसने पूछा।

    ”नरवदा काली।”

    Khoya-Hua-Moti


  • Kabuliwala

    Kabuliwala

    Kabuliwala


    यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]

    मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।

    सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्तरहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया, ”बाबूजी! रामदयाल दरबान कल ‘काक’ को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?”

    विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, ”बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।”

    इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख कर, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, “बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”

    मन ही मन में मैंने कहा – साली और फिर बोला, ”मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।”

    तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर ‘अटकन-बटकन दही चटाके’ कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

    मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ”काबुलवाला, ओ काबुलवाला।”

    मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्सतरहवाँ अध्‍याय आज अधूरा रह जाएगा।

    किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई। उसके छोटे-से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।

    इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।

    कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। खुद रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।

    अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा, ”बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?”

    मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने नहीं लिया और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

    इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, ”इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।” कहकर कुर्ते की जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।

    कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।

    मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डाँट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी, ”तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”

    मिनी ने कहा, ”काबुल वाले ने दी है।”

    ”काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?”

    मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा, ”मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।”

    मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।

    मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।

    देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती, ”काबुल वाला, ओ काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली, जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता, ”हाँ बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

    उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, ”तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?”

    हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही ‘ससुराल’ शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उलटे, वह रहमत से ही पूछती, ”तुम ससुराल जाओगे?”

    रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता, ”हम ससुर को मारेगा।”

    सुनकर मिनी ‘ससुर’ नामक किसी अनजाने जीव की दुरवस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

    देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

    इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

    मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं। उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

    रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती, ”क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?” इत्यादि।

    मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

    हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।

    लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी ‘ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।

    एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।

    देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा, ”क्या बात है?”

    कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।

    रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ”काबुल वाला! ओ काबुल वाला!” पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

    रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे।”

    रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा, ”हां, वहीं तो जा रहा हूं।”

    रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, ”ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

    छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

    रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धंधों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।

    और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।

    कितने ही वर्ष बीत गये। वर्षों बाद आज फिर शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।

    सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की सँकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईंटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।

    हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।

    सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। ‘चलो रे’, ‘जल्दी करो’, ‘इधर आओ’ की तो कोई गिनती ही नहीं है।

    मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।

    पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

    मैंने पूछा, ”क्यों रहमत, कब आए?”

    उसने कहा, ”कल शाम को जेल से छूटा हूँ।”

    सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।

    मैंने उससे कहा, ”आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।”

    मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, ”क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?”

    शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह ‘काबुल वाला, ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।

    मैंने कहा, ”आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।”

    मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

    मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।

    वह पास आकर बोला, ”ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।”

    मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ”आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।” तनिक रुककर फिर बोला- ”बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।”

    कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

    देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

    देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

    उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला, ”लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?”

    मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

    मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

    मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ”रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”

    रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

    Kabuliwala-Rabindranath-Tagore-Story


  • MUKTI – Indian Short Film

    MUKTI – Indian Short Film


    Starring: Milind Soman & Yashpal Sharma

    Written & Directed by: Manu Chobe

    MUKTI-Indian-Short-Film-Independence-Day-Milind-Soman-Yashpal-Sharma


  • The Complaint – Indian Short Film

    The Complaint – Indian Short Film


    Harish Singh, a retired Bank Manager from Allahabad is carrying an emotional scar that makes him the skeptic of the Muslim community. But when a Muslim repair engineer comes to fix the old man’s laptop, something happens that proves to him that humanity is beyond hatred.

    The Army Officer displayed in this film is a real life martyr who laid his life for the nation.

    CREDITS: Avijit Dutt as Harish Singh, Rahul Subramanian as Imtiaz Khan

    Story and Direction: Mrinal Bahukhandi

    Executive Producer: Kalyan Ram Challapalli

    Associate Producer: Sonal Aggarwal Challapalli

    Music Composer: Gaurav Godkhindi

    Director of Photography: Sudip Sengupta

    Daughter’s Voice: Archita Trisal

    Dialogues & Stills: Shashwat Srivastava

    Editors: Divyashree Samantaray

    Script: Siddhant Behera

    Color Grading: Mrinal Bahukhandi

    Unit Production Manager: Subhash Jadhav

    First Assistant Director: Anik Mathur

    Dressman: Pramod Gawande

    Art Director: Dilnaaz Mehta

    The-Complaint-Indian-Short-Film-Independence-Day-By-Mrinal-Bahukhandi


  • HIND – Indian Short Film

    HIND – Indian Short Film


    Director: Sumit Aroraa

    Supported by United Colors Of Benetton

    Starring Noorul Hasan

    Concept: Sumit Aroraa

    Producers: Chintan Ruparel, Anuj Gosalia

    Creative Producers: Sharanya Rajgopal, Chintan Ruparel

    DoP: Surjodeep Ghosh

    Executive Producer: Amar Kaushik

    Music & Sound Design: Advait Nemlekar

    Editor: Rachit Mehta

    Production Assistant: Sagar Aroraa

    First Camera Assistant: Sandeep S Gaurav

    DI Colourist: Rob Lang

    Online Editor: Rakesh Menon

    Line Producer (Lucknow): Arun Singh Dicky

    Post Line Producer: Arvind Singh

    Post Production Studio: After

    2nd AD: Rishabh Kapoor, Pragya Singh

    PR: Mauli Singh

    Team ttt: Shameen Khatri, Pracchi Batnagar, Vishant Pijwala

    BTS Stills: Shreya Pande

    HIND-Indian-Short-Film-Independence-Day-film


  • MOUSE – A Comedy Short Film

    MOUSE – A Comedy Short Film


    Fueled by coke, a desperate couple attempts to capitalize on an unlikely opportunity.

    By ELO films; elofilms.com

    Written & Directed by Celine Held & Logan George

    Director of Photography: Lowell A. Meyer

    Production Designer: James Bartol

    Starring: Vanessa Wasche & Logan George

    Assistant Director: Jack Kyser

    Assistant Camera: Ian Wexler

    Sound Production Mixer: Alessandro Altman

    Gaffer: Gene Malkin

    Production Assistants: Vu Kong & Jovan James

    Editor: Logan George

    Supervising Sound Editors: Joanna Fang & Dennis Hu

    Dialogue Editor: Philip Kim

    Composer: David Baloche

    Music: Little People – “Inutile et Indispensable”, Rick Alvin – “Temple Pressure”

    No mice were harmed in the making of this film.

    MOUSE-A-Comedy-Short-Film


  • Kanchan

    Kanchan

    Kanchan (कंचन)


    यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]

    मैं धन्यवाद करने ही जा रहा था, कि कंचन बोल उठी – ”दादू! हरेक को न्यौता देकर मुझे मुश्किल में डाल देते हो। भला इस जंगल में फिरंगी की दुकान कहां मिलेगी? ये विलायत के ‘डिनर’ खाने वाली जाती से सम्बन्धित इन्सान हैं। व्यर्थ में अपनी नातिन को बदनाम करना चाहते हो?”
    ”अच्छा, अच्छा तो कब आपको सुविधा होगी, बताइए- ”वृध्द महाशय पूछ उठे।
    ”मेरी सुविधा तो कल ही हो सकती है; परन्तु मैं कंचनदेवी को परेशान नहीं करना चाहता। मुझे अनुसंधान के लिए वनों में जाना पड़ता है। वहां जो कुछ भी प्रकृति की देन के द्वारा मिलता है उसे बटोर कर ले आता हूं।”

    ”दादू! उनकी बातों पर विश्वास मत कीजिए…ये तो ऐसे ही कहते रहते हैं।”

    मैंने सोचा यह तो अजीब लड़की है, जो कहता हूं उसी को जड़ से काट देती है। इस प्रकार वार्ता करते-करते हम सब कंचन के मकान की ओर बढ़े चले जा रहे थे कि कंचन हठात् बोल उठी- ”अब आप अपने शिविर को लौट जाइये।”

    ”क्यों? मैंने तो सोचा था कि आप लोगों को मकान तक छोड़ आऊं।”

    ”बस, बस, हम खुद ही चले जायेंगे। अस्त-व्यस्त अवस्था में मकान को दिखाकर परिहास का केन्द्र नहीं बनना चाहती। उसे देखते ही मेम साहिब की याद आ जायेगी।”

    विवश हो मुझे विलग होना पड़ा। उस अवस्था में मैंने कहा- ”कल आप लोगों के यहां जो मेरा न्योता है, वह मेरे नए नामकरण के लिए है। कल से नवीन माधव नाम का डाक्टर सेन गुप्त अंश छूट जायेगा।”

    ”तब तो नामवर्त्तन कहिये, नामकरण क्यों कहते हैं?”

    ”जैसा आप समझें।”

    इसके उपरान्त मैं अपने शिविर में लौट आया। उस दिन अनुसन्धान के लिए लाये हुए पदार्थों की मैं परख नहीं कर सका। मेरा मस्तिष्क कंचन के विषय में ही सोचता रहा।

    अगले दिन तनिका के तट पर कंचन के साथ हमारी पिकनिक हुई। डॉक्टर साहब बालकों के समान मुझसे पूछ बैठे- ”नवीन, क्या तुम विवाहित हो?” मैंने उस भावार्थ प्रश्न का तुरन्त ही उत्तर देते हुए कहा- ”अभी तो अविवाहित हूं।” कंचन को किसी बात से छुटकारा नहीं? वह बोली- ”दादू! अभी तक शब्द तो कन्यापक्ष वालों को सांत्वना देने मात्र के लिए है। उनका कोई यथार्थ अर्थ नहीं।”
    ”यथार्थ अर्थ नहीं, यह कैसे निश्चय कर लिया?”
    ”यह एक गणित की उलझन है, फिर भी उच्च गणित कहने से जो वस्तु समझी जाती है, वह यह नहीं है। यह तो पहले से ही सुनने में आया है कि आप छत्तीस साल के बच्चे हैं। इस अर्से में आपसे भी पांच-सात बार कहा जा चुका है कि बेटा बहू लाना चाहती हूं। लेकिन आपने कहा- इससे पहले मैं लोहे के सन्दूक में रुपये लाना चाहता हूं। इसके बाद इस अर्से में आपका सब कुछ हो गया केवल फांसी भर शेष थी। अन्त में प्रांतीय सरकार का बड़ा पद जुट गया तो मां ने फिर कहा- ”अब तो बेटा ब्याह करना होगा। मेरी जिन्दगी के और कितने दिन बाकी हैं?’ आपने कहा- ‘मेरा जीवन और मेरा विज्ञान एक है, उसे मैं देश के लिए उत्सर्ग करूंगा। मैं अभी ब्याह न करूंगा।’ विवश होकर फिर उन्होंने आंखों का पानी पोंछकर चुप्पी साध ली। आपके छत्तीस वर्ष का हिसाब लगाते समय मैंने कहीं गलती की हो तो कहिए, वास्तव में बताइये, संकोच की कोई आवश्यकता नहीं।”
    फिर बोली- ”हम लोगों के देश में आप लोग लड़कियों को जीवन-संगिनी के रूप में पाते हैं। विश्व का जिससे कोई प्रयोजन नहीं, किन्तु विदेश में जो लोग विज्ञान के तपस्वी हैं, उनको तो उपयुक्त तपस्विनी ही मिल जाती है- जैसे अध्यापक क्यूरी को सहधार्मिनी मादाम क्यूरी। तो क्या वैसी कोई आपको वहां रहते नहीं मिली?”
    कंचन के कहते ही कैथेरिन की बात याद आ गई। लन्दन में रहते समय साथ ही काम किया था। यहां तक कि, मेरी एक रिसर्च की पुस्तक में मेरे नाम के साथ उसका नाम भी जड़ित था। बात माननी पड़ी।
    कंचन ने तत्काल ही पूछा- ”उनके साथ आपने विवाह क्यों नहीं किया? वे क्या इसके लिए तैयार नहीं थी?”

    ”उन्हीं की ओर से प्रस्ताव तो उठा था।”
    ”तब।”
    ”मेरा नाम भारतवर्ष का ठहरा, इसलिए…।”
    ”यानी स्नेह की सफलता आप जैसे साधकों की कामना की वस्तु नहीं। लड़कियों के जीवन का परम लक्ष्य व्यक्तिगत है, और आप जैसे इन्सानों का नैर्यक्तिक।”
    इसका उत्तर मुझसे देते न बन पड़ा। मुझे चुप देखकर कंचन पुन: बोली- ”बंगला साहित्य कतिपय आपने नहीं पढ़ा। उसमें यही बात दिखाई गई है कि लड़कियों का व्रत पुरुष को बांधना है और पुरुष का व्रत है उस बंधन को काटकर ऊपर लोक का मार्ग पकड़ना। कच भी देवयानी के अनुरोध की उपेक्षा कर निकल पड़ा था- आप मां का अनुनय न मानकर चल पड़े हैं। एक ही बात हुई। नारी और पुरुष में चिरकाल से चला आने वाला हो, चाहे भले ही अबला क्रन्दन होता रहे। उस क्रन्दन से आप लोग अपनी पूजा का नैवेद्य सजा लीजिए। देवता के उद्देश्य से ही नैवेद्य की भेंट होती है; लेकिन देवता निरासक्त ही रहते हैं।”
    कंचन ने फिर कहा- ”देवयानी ने कच को क्या श्राप दिया था, जानते हैं, नवीन बाबू?”
    ”नहीं।”
    ”अपने ज्ञान-साधन का फल आप स्वयं न सोच सकेंगे। हां, दूसरों को दान कर सकेंगे।” ”मुझे यह बात कुछ अजीब-सी लगती है। यदि यह श्राप आज कोई विदेशी लोगों को देता, तो वह बच जाता। विश्व की सामग्री को अपनी सामग्री के समान व्यवहार करने की वजह से ही यूरोप वाले लालच के द्वार पर मरते हैं।”
    उस दिन जो बातें हुई वे केवल हास्य-व्यंग्य ही नहीं थीं। उनमें युध्द की ओर संकेत था। कंचन के साथ अब मेरा सम्बन्ध सहज हो आया था, इस पर भी मैं कंचन के सम्मुख खड़े होकर उसकी चरम अभिलाषा की थाह पाने का कोई उपाय खोज नहीं पाया।

    हां, अवश्य एक दिन पिकनिक के समय यह सुयोग मिल गया। उस समय डॉक्टर साहब शिवालय के खंडहर की सीढ़ी पर बैठकर रसायन-शास्त्र की कोई नई आई हुई पोथी पढ़ रहे थे। एक आबनूस के पेड़ की झाड़ी में बैठकर कंचन अचानक कह उठी-”इस महाकाल के वन में एक अंधी प्राण शक्ति है, उससे भयग्रस्त हूं।”

    कंचन कहती गई- ”पुराने भवनों के दरार से लुक-छिपकर पीपल का अंकुर निकलता है, और फिर धीरे-धीरे अपनी जड़ों से उसे बुरी तरह जकड़ लेता है। यह भी वैसा ही है। दादू के साथ यही बात हो रही थी। दादू कह रहे थे, बस्ती से बहुत दिनों तक दूर रहने से प्रकृति के अभाव से मानव का चरित्र दुर्बल हो जाता है और आदमी प्राणी प्रकृति का असर प्रखर हो उठता है।”

    मैंने उत्तर दिया- ”बताता हूं। मेरी बात को भली-भांति सोच देखियेगा। मेरा विचार यह है कि ऐसे अवसरों पर मानव का संग भीतर और बाहर से मिलना चाहिए, जिसका प्रभाव मानव प्रकृति को पूर्ण कर सके। जब तक यह नहीं होगा तब तक अंध शक्ति से पराजित ही होना पड़ेगा। काश आप मामूली…”

    ”हां, हां कहिये, संकोच मत कीजिये।”-कंचन ने शीघ्रता से कहा।

    ”यह तो जानते ही हैं कि मैं वैज्ञानिक हूं अत: जो कहने जा रहा हूं उसे व्यक्तिगत आसक्ति से रहित होकर ही कहूंगा। आपने एक दिन भवतोष को बहुत स्नेह से देखा था, क्या आज भी उसे उसी प्रकार…”

    ”समझ लीजिए, नहीं करती…तब।”

    ”मैंने ही आपके मन को उधर से हटाया है।”

    ”सम्भव हो सकता है; लेकिन आपने ही नहीं, बल्कि इस अंध शक्ति ने भी। इसलिए मैं इस हटने को श्रध्दा की दृष्टि से नहीं देखती।”

    ”ऐसा क्यों?”

    ”दीर्घ काल के प्रयास से मानवचित्र शक्ति में अपने आदर्श की रचना करता है, प्राण शक्ति की अंधता उस आदर्श को तोड़ देती है। आपके प्रति जो मेरा प्रेम है, वह उसी अंध शक्ति के आक्रमण का फल है।”

    ”नारी होकर भी आप प्रेम पर ऐसा अपवाद मढ़ती हैं?”

    ”नारी होने के कारण ही ऐसा कह रही हूं। प्रेम का आदर्श हमारे लिए पूजा की सामग्री है। उसी को सतीत्व कहते हैं। सतीत्व एक आदर्श है। यह सामग्री वन की प्रकृति की नहीं है, मानवी की है। इस निर्जन में इतने दिनों से इसी आदर्श की पूजा कर रही थी। सारे आघातों को सहन और धोखा खाने के बाद भी उसे बचा सकी, तो मेरी पवित्रता भी नहीं जायेगी।

    ”क्या भवतोष के लिए अब भी श्रध्दा का स्थान है?”

    ”नहीं।”

    ”उसके पास जाना चाहती हो।”

    ”नहीं।”

    ”तो फिर।”

    ”कुछ भी नहीं।”

    ”मैं आशय नहीं समझा।”

    ”आप समझ भी नहीं सकेंगे। आपकी संपत्ति ज्ञान है, उच्चतर शिखर पर वह भी इम्पर्सनल है। नारी संपत्ति हृदय की संपत्ति है। यदि उसका सब कुछ चला जाये, वह सब कुछ जो बाहरी है, जिसे स्पर्श किया जा सकता है तब भी उस प्रेम में वह वस्तु बच रहती है, जो कि इम्पर्सनल है।”

    ”वाद-विवाद में समय नष्ट न कीजिए। मुझे कुछ ही दिनों में खोज करने के अभिप्राय से अन्यत्र कहीं चला जाना होगा किन्तु…।”

    ”फिर गये क्यों नहीं?”

    ‘आपसे…।”

    तभी कंचन ने पुकारा- ”दादू!”

    डॉक्टर साहब अपना पढ़ना-लिखना छोड़कर उठ आये और मधुर स्नेह के स्वर में बोले- ”क्या है दीदी?”

    ”आपने उस दिन कहा था न कि मनुष्य का सत्य उसी की तपस्या के भीतर से अभिव्यक्त हुआ है। उसकी अभिव्यक्ति प्राणी शास्त्र से समझी जाने वाली अभिव्यक्ति नहीं है?”

    ”हां बिल्कुल ठीक…।”

    ”दादू तो फिर आज अपनी और आपकी बात का निर्णय कर दूं। कई दिनों से मस्तिष्क उथल-पुथल का केन्द्र बना हुआ है।”

    मैं उठ खड़ा हुआ, बोला- ”तो मैं चलूं।”

    ”नहीं! आप बैठिये। दादू, आपका वही पद फिर खाली हुआ है और सेक्रटरी ने पुन: आपको बुलवाया भी है।”

    ”हां तो फिर…।”

    ”आपको उस पद को स्वीकार करना होगा…अति शीघ्र वहीं लौट जाना होगा।”

    डॉक्टर साहब बेचारे हत्बुध्दि होकर कंचन के मुंह की ओर ताकते रहे। कंचन बोली-”अच्छा, अब समझी, आप इसी सोच में पड़े हैं कि मेरी क्या गति होगी? यदि अहंकार की मात्रा बहुत न बढ़ती हो, तो आपको यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि मेरे बिना आपका एक दिन भी नहीं चल सकता। मेरी अनुपस्थिति में तो पंद्रहवीं आश्विन को आप पंद्रहवीं अक्टूबर समझ बैठते हो। जिस दिन घर में अपने सहयोगी अध्यापक को भोजन के लिए आमंत्रित करते हो, उसी दिन लायब्रेरी का द्वार बन्द करके कोई ‘निदारूण ईक्वेशन’ सुलझाने में लग जाते हो। नवीन बाबू सोचते होंगे कि मैं बात बढ़ा-चढ़ाकर कह रही हूं।”

    ”आज ऐसी अशुभ बातें…।”

    ”सब अभी खत्म हो जायेंगी। आप चलें तो मेरे साथ अपने काम पर, छुटी हुई गाड़ी फिर लौट आयेगी।”

    डॉक्टर साहब मेरी ओर देखकर बोले-”तुम्हारी क्या सलाह है नवीन?”

    मैं क्षण भर स्तब्ध रहकर बोला-”कंचनदेवी से अधिक अच्छा परामर्श कोई नहीं दे सकता।”

    कंचन ने उठकर मेरे चरण छूकर प्रणाम किया। मैं संकुचित होकर पीछे हट आया। कंचन बोली- ”संकोच न कीजिये। आपकी तुलना में मैं कुछ भी नहीं हूं… यह बात किसी दिन साफ हो जायेगी? आज आपसे यहीं अन्तिम विदा लेती हूं, जाने से पूर्व अब भेंट न होगी।”

    ”यह कैसी बात कह रही हो, दीदी?”-डॉक्टर साहब ने पूछा।

    ”दादू…” इतना ही कह सकी कंचन।

    मैंने उसी क्षण डॉक्टर साहब की पग-धूलि का स्पर्श किया। उन्होंने छाती से लगाकर कहा- ”मैं जानता हूं नवीन कि तुम्हारी कीर्ति का पथ तुम्हारे सामने प्रशस्त है।”

    अपने स्थान पर लौटकर पहला रिकार्ड निकाला। उसे देखते ही मन में सहसा आनन्द उमड़ आया। समझा मुक्ति इसी को कहते हैं। संध्या-बेला में दिन भर का काम समाप्त करके बरामदे में आते ही अनुभव हुआ… पंछी पिंजरे से तो निकल आया है, किन्तु उसके पांवों में जंजीर की एक कड़ी अब भी उलझी हुई है… हिलते-हिलते वह बज उठती है।

    Kanchan-Rabindranath-Tagore-Story


  • Kavi ka Hrday

    Kavi ka Hrday

    Kavi ka Hrday (कवि का हृदय)


    यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]

    चांदनी रात में भगवान विष्णु बैठे मन-ही-मन गुनगुना रहे थे-

    ”मैं विचार किया करता था कि मनुष्य सृष्टि का सबसे सुन्दर निर्माण है, किन्तु मेरा विचार भ्रामक सिध्द हुआ। कमल के उस फूल को, जो वायु के झोंकों से हिलता है, मैं देख रहा हूं। कि वह सम्पूर्ण जीव-मात्र से कितना अधिक पवित्र और सुन्दर है। उसकी पंखुड़ियां अभी-अभी प्रकाश से खिली हैं। वह ऐसा आकर्षक है कि मैं अपनी दृष्टि उस पर से नहीं हटा सकता। हां, मानवों में इसके समान कोई वस्तु विद्यमान नहीं।”

    विष्णु भगवान ने एक ठंडी सांस खींची। उसके एक क्षण पश्चात् सोचने लगे-

    ”आखिर किस प्रकार मुझको अपनी शक्ति से एक नवीन अस्तित्व उत्पन्न करना चाहिए, जो मनुष्यों में ऐसा हो जैसा कि फूलों में कमल है। जो आकाश और पृथ्वी दोनों के लिए सुख तथा प्रसन्नता का कारण बने। ऐ कलम! तू एक सुन्दर युवती के रूप में परिवर्तित हो जा और मेरे सामने खड़ा हो।”

    जल में एक हल्की-सी लहर उत्पन्न हुई, जैसे कृष्ण चिड़िया के पंखों से प्रकट होती है। रात अधिक प्रकाशमान हो गई। चन्द्रमा पूरे प्रकाश के साथ चमकने लगा, परन्तु कुछ समय पश्चात् सहसा सब मौन रह गये, जादू पूरा हो गया। भगवान के सम्मुख कमल मानवी-रूप में खड़ा था।

    वह ऐसा सुन्दर रूप था कि स्वयं देवता को भी देखकर आश्चर्य हुआ। उस रूपवती को सम्बोधित करके विष्णु भगवान बोले-”तुम इसके पहले सरोवर का फूल थीं, अब मेरी कल्पना का फूल हो, बातें करो।”

    सुन्दर युवती ने बहुत धीरे-से बोलना आरम्भ किया। उसका स्वर ठीक ऐसा था जैसे कमल की पंखुड़ियां प्रात:समीरण के झोंकों से बज उठती हैं।

    ”महाराज, आपने मुझको मानवी-रूप में परिवर्तित किया है, कहिये अब आप मुझे किस स्थान में रहने की आज्ञा देते हैं। महाराज, पहले मैं पुष्प थी तो वायु के थपेड़ों से डरा करती थी और अपनी पंखुड़ियां बन्द कर लेती थी। मैं वर्षा और आंधी से भय मानती थी, बिजली और उसकी कड़क से मेरे हृदय को डर लगता था, मैं सूर्य की जलाने वाली किरणों से डरा करती थी, आपने मुझको कमल से इस अवस्था में बदला है अत: मेरी पहले-सी प्रकृति है। मैं पृथ्वी से और जो कुछ उस पर विद्यमान है, उससे डरती हूं। फिर आज्ञा दीजिए मुझे कहां रहना चाहिए।”

    विष्णु ने तारों की ओर दृष्टि की, एक क्षण तक कुछ सोचा, उसके बाद पूछा- ”क्या तुम नागराज के शिखरों पर रहना चाहती हो?”

    ”नहीं महाराज, वहां बर्फ है और मैं शीत से डरती हूं।”

    ”अच्छा, मैं सरोवर की तह में तुम्हारे लिए शीशे का महल बनवा दूंगा।”

    ”जल की गहराइयों में सर्प और भयावने जन्तु रहते हैं इसलिए मुझे डर लगता है।”

    ”तो क्या तुमको सुनसान उजाड़ स्थान रुचिकर है?”

    ”नहीं महाराज, वन की तूफानी समीर और दामिनी की भयावनी कड़क को मैं किस प्रकार सहन कर सकती हूं।’

    ”तो फिर तुम्हारे लिए कौन-सा स्थान निश्चित किया जाए? हां, अजन्ता की गुफाओं में साधु रहते हैं, क्या तुम सबसे अलग किसी गुफा में रहना चाहती हो?”

    ”महाराज, वहां बहुत अंधेरा है, मुझे डर लगता है।”

    भगवान विष्णु घुटने के नीचे हाथ रखकर एक पत्थर पर बैठ गये। उनके सामने वही सुन्दरी सहमी हुई खड़ी थी।

    बहुत देर के उपरान्त जब ऊषा-किरण के प्रकाश ने पूर्व दिशा में आकाश को प्रकाशित किया, जब सरोवर का जल, ताड के वृक्ष और हरे बांस सुनहरे हो गये, गुलाबी, बगुले, नीले सारस और श्वेत हंस मिलकर पानी पर और मोर जंगल में कूकने लगे तो उसके साथ ही वीणा की मस्त कर देने वाली लय से मिश्रित प्रेमगान सुनाई देना आरम्भ हुआ। भगवान अब तक संसार की चिंता में संलग्न थे, अब चौंके और कहा- ”देखो! कवि बाल्मीकि सूर्य को नमस्कार कर रहा है।”

    कुछ समय के पश्चात् केसरिया पर्दे जो चांदनी को ढके हुए थे उठ गये और सरोवर के समीप कवि बाल्मीकि प्रकट हुए। मनुष्य के रूप में बदले हुए कमल के फूल को देखकर उन्होंने वाद्ययंत्र बजाना बन्द कर दिया। बीणा उनके हाथों से गिर पड़ी, दोनों हाथ जंघाओं पर जा लगे। वह खड़े-के-खड़े रह गये। जैसे सर्वथा किंकर्तव्यविमूढ़ थे।

    भगवान ने पूछा- ”बाल्मीकि, क्या बात है, मौन हो गये?”

    बाल्मीकि बोले- ”महाराज, आज मैंने प्रेम का पाठ पढ़ा है।” बस इससे अधिक कुछ न कह सके।

    विष्णु भगवान का मुख सहसा चमक उठा। उन्होंने कहा- ”सुन्दर कामिनी! मुझको तेरे लिए योग्य स्थान मिल गया। जा कवि के हृदय में निवास कर।”

    भगवान ने बाल्मीकि के हृदय को शीशे के समान निर्मल बना दिया था। वह सुन्दरी अपने निर्वाचित स्थान में प्रविष्ट हो रही थी, किन्तु जैसे ही उसने बाल्मीकि के हृदय की गहराई को मापा, उसका मुख पीला पड़ गया और उस पर भय छा गया।

    देवता को आश्चर्य हुआ।

    बोले- ”क्या कवि-हृदय में भी रहने से डरती हो?”

    ”महाराज, आपने मुझे किस स्थान पर रहने की आज्ञा दी है। मुझको तो उस एक ही हृदय में नागराज के शिखर, अजीब जन्तुओं से भरी हुई जल की अथाह गहराई और अजन्ता की अंधेरी गुफाएं आदि सब-कुछ दृष्टिगोचर होता है। इसलिए महाराज मैं भयभीत होती हूं।”

    यह सुनकर विष्णु भगवान मुस्काये और बोले- ”मनुष्य के रूप में परिवर्तित सुमन रख। यदि कवि के हृदय में हिम है तो तुम वसन्त ऋतु की उष्ण समीर का झोंका बन जाओगी, जो हिम को भी पिघला देगा। यदि उसमें जल की गहराई है तो तुम उस गहराई में मोती बन जाओगी। यदि निर्जन वन है तो तुम उसमें सुख और शांति के बीज बो दोगी। यदि अजंता की गुफा है तो तुम उसके अंधेरे में सूर्य की किरण बनकर चमकोगी।”

    कवि ने इस बीच में बोलने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसकी ओर देखते ही भगवान विष्णु ने इतना और कहा- ”जाओ, यह वस्तु तुम्हें देता हूं, इसे लो और सुखी रहो।”

    Kavi-ka-Hrday


  • Kavi aur Kavita

    Kavi aur Kavita

    Kavi aur Kavita (कवि और कविता)


    यह कहानी रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई है! [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”Listen to Story”]

    राजमहल के सामने भीड़ लगी हुई थी। एक नवयुवक संन्यासी बीन पर प्रेम-राग अलाप रहा था। उसका मधुर स्वर गूंज रहा था। उसके मुख पर दया और सहृदता के भाव प्रकट हो रहे थे। स्वर के उतार-चढ़ाव और बीन की झंकार दोनों ने मिलकर बहुत ही आनन्दप्रद स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। दर्शक झूम-झूमकर आनन्द प्राप्त कर रहे थे।

    गाना समाप्त हुआ, दर्शक चौंक उठे। रुपये-पैसे की वर्षा होने लगी। एक-एक करके भीड़ छटने लगी। नवयुवक संन्यासी ने सामने पड़े हुए रुपये-पैसों को बड़े ध्यान से देखा और आप-ही-आप मुस्करा दिया। उसने बिखरी हुई दौलत को एकत्रित किया और फिर उसे ठोकर मारकर बिखरा दिया। इसके पश्चात् बीन उठाकर एक ओर चल दिया।

    राजकुमारी माया ने भी उस नवयुवक संन्यासी का गाना सुना था। दर्शक प्रतिदिन वहां आते और संन्यासी को न पाकर निराश हो वापस चले जाते थे। राजकुमारी माया भी प्रतिदिन राजमहल के सामने देखती और घंटों देखती रहती। जब रात्रि का अन्धकार सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लेता तो राजकुमारी खिड़की में से उठती। उठने से पहले वह सर्वदा एक निराशाजनक करुणामय आह खींचा करती थी।

    इसी प्रकार दिन, हफ्ते और महीने बीत गए। वर्ष समाप्त हो गया, परन्तु युवक संन्यासी फिर दिखाई न दिया। जो व्यक्ति उसकी खोज में आया करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने वहां आना छोड़ दिया। वे उस घटना को भूल गये, किन्तु राजकुमारी माया…राजकुमारी माया उस युवक संन्यासी को हृदय से न भुला सकी। उसकी आंखों में हर समय उसका चित्र फिरता। होते-होते उसने भी गाने का अभ्यास किया। वह प्रतिदिन अपने उद्यान में जाती और गाने का अभ्यास करती। जिस समय रात्रि की नीरवता में सोहनी की लय गूंजती तो सुनने वाले ज्ञान-शून्य हो जाते।

    राजकवि अनंगशेखर युवक था। उसकी कविता प्रभावशाली और जोरदार होती थी। जिस समय वह दरबार में अपनी कविता गायन के साथ पढ़कर सुनाता तो सुनने वालों पर मादकता की लहर दौड़ जाती, शून्यता का राज्य हर ओर होता। राजकुमारी माया को कविता से प्रेम था। सम्भवत: वह भी अनंगशेखर की कविता सुनने के लिए विशेषत: दरबार में आ जाती थी।

    राजकुमारी की उपस्थिति में अनंगशेखर की जुबान लड़खड़ा जाती। वह ज्ञान-शून्य-सा खोया-खोया हो जाता, किन्तु इसके साथ ही उसकी भावनाएं जागृत हो जातीं। वह झूम-झूमकर और उदाहरणों को सम्मुख रखता। सुनने वाले अनुरक्त हो जाते। राजकुमारी के हृदय में भी प्रेम की नदी तरंगें लेने लगती। उसको अनंगशेखर से कुछ प्रेम अनुभव होता, किन्तु तुरन्त ही उसकी आंखें खुल जातीं और युवक संन्यासी का चित्र उसके सामने फिरने लगता। ऐसे मौके पर उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते। अनंगशेखर आंसू-भरे नेत्रों पर दृष्टि डालता तो स्वयं भी आंसुओं के प्रवाह में बहने लगता। उस समय वह शस्त्र डाल देता और अपनी जुबान से आप ही कहता- ”मैं अपनी पराजय मान चुका।”

    कवि अपनी धुन में मस्त था। चहुंओर प्रसन्नता और आनन्द दृष्टिगोचर होता था। वह अपने विचारों में इतना मग्न था जैसे प्रकृति के आंचल में रंगरेलियां मना रहा हो।

    सहसा वह चौंक पड़ा। उसने आंखें फाड़-फाड़कर अपने चहुंओर दृष्टि डाली और फिर एक उसांस ली। सामने एक कागज पड़ा था। उस पर कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं। रात्रि का अन्धकार फैलता जा रहा था। वह वापस हुआ।

    राजमहल समीप था और उससे मिला हुआ उद्यान था। अनंगशेखर बेकाबू हो गया। राजकुमारी की खोज उसको बरबस उद्यान के अन्दर ले गई।

    चन्द्रमा की किरणें जलस्रोत की लहरों से अठखेलियां कर रही थीं, प्रत्येक दिशा में जूही और मालती की गन्ध प्रसारित थी, कवि आनन्दप्रद दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया। भय और शंका ने उसे आ दबाया। वह आगे कदम न उठा सका। समीप ही एक घना वृक्ष था। उसकी छाया में खड़े होकर वह उद्यान के बाहर का आनन्द प्राप्त करने लगा। इसी बीच में वायु का एक मधुर झोंका आया। उसने अपने शरीर में एक कम्पन अनुभव किया। इसके बाद उद्यान से एक मधुर स्वर गूंजा, कोई गा रहा था। वह अपने-आपे में न था, कुछ खो-सा गया। मालूम नहीं इस स्थिति में वह कितनी देर खड़ा रहा? जिस समय वह होश में आया, तो देखा कोई पास खड़ा है। वह चौंक उठा, उसके सामने राजकुमारी माया खड़ी थी।

    अनंगशेखर का सिर नीचा हो गया। राजकुमारी ने मुस्कराते हुए होंठों से पूछा- ”अनंगशेखर, तुम यहां क्यों आये?”

    कवि ने सिर उठाया, फिर कुछ लजाते हुए राजकुमारी की ओर देखा, फिर से मुख से कुछ न कहा।
    राजकुमारी ने फिर पूछा-”तुम यहां क्यों आये?”

    इस बार कवि ने साहस से काम लिया। हाथ में जो पत्र था वह राजकुमारी को दे दिया। राजकुमारी ने कविता पढ़ी। उस कविता को अपने पास रखना चाहा; किन्तु वह छूटकर हाथ से गिर गई। राजकुमारी तीर की भांति वहां से चली गई। अब कवि से सहन न हो सका, वह ज्ञान-शून्य होकर चिल्ला उठा-”माया, माया!”
    परन्तु अब माया कहां थी।

    राजदरबार में एक युवक आया, दरबारी चिल्ला उठे- ”अरे, यह तो वही संन्यासी है जो उस दिन राजमहल के सामने गा रहा था।
    राजा ने मालूम किया- ”यह युवक कौन है?”
    युवक ने उत्तर दिया- ”महाशय, मैं कवि हूं।”
    राजकुमारी उस युवक को देखकर चौंक उठी।

    राजकवि ने भी उस युवक पर दृष्टि डाली, मुख फक हो गया। पास ही एक व्यक्ति बैठा हुआ था, उसने कहा- ”वाह! यह तो एक भिक्षुक है।”
    राजकवि बोल उठा- ”नहीं, उसका अपमान न करो, वह कवि है।”
    चहुंओर सन्नाटा छा गया। महाराज ने उस युवक से कहा- ”कोई अपनी कविता सुनाओ।”
    युवक आगे बढ़ा, उसने राजकुमारी को और राजकुमारी ने उसको देखा। स्वाभिमान अनुभव करते हुए उसने कदम आगे बढ़ाये।
    राजकवि ने भी यह स्थिति देखी तो उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं।

    युवक ने अपनी कविता सुनानी आरम्भ की। प्रत्येक चरण पर ‘वाह-वाह’ की ध्वनियां गूंजने लगीं, किसी ने ऐसी कविता आज तक न सुनी थी।
    युवक का मुख स्वाभिमान और प्रसन्नता से दमक उठा। वह मस्त हाथी की भांति झूमता हुआ आया और अपने स्थान पर बैठ गया। उसने एक बार फिर राजकुमारी की ओर देखा और इसके पश्चात् राजकवि की ओर। महाराज ने राजकवि से कहा- ”तुम भी अपनी कविता सुनाओ।”

    अनंगशेखर चेतना-शून्य-सा बैठा था। उसके मुख पर निराशा और असफलता की झलक प्रकट हो रही थी।
    महाराज फिर बोले- ”अनंगशेखर! किस चिन्ता में निमग्न हो? क्या इस युवक-कवि का उत्तर तुमसे नहीं बन पड़ेगा?”
    यह अपमान कवि के लिए असहनीय था! उसकी आंखें रक्तिम हो गयीं, वह अपने स्थान से उठा और आगे बढ़ा। उस समय उसके कदम डगमगा रहे थे।
    आगे पहुंचकर वह रुका, हृदय खोलकर उसने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया। चहुंओर शून्यता और ज्ञान-शून्यता छा गई, श्रोता मूर्ति-से बनकर रह गये।

    राजकवि मौन हो गया। एक बार उसने चहुंओर दृष्टिपात किया। उस समय राजकुमारी का मुख पीला था। उस युवक का घमण्ड टूट चुका था। धीरे-धीरे सब दरबारी नींद से चौंके, चहुंओर से ‘धन्य है, धन्य है’ की ध्वनि गूंजी। महाराज ने राजसिंहासन से उठकर कवि को अपने हृदय से लगा लिया। कवि की यह अन्तिम विजय थी।
    महाराज ने निवेदन किया- ”अनंग! मांगो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा।”

    राजकवि कुछ देर तक सोचता रहा। इसके बाद उसने कहा- ”महाराज मुझे और कुछ नहीं चाहिए! मैं केवल राजकुमारी का इच्छुक हूं।”
    यह सुनते ही राजकुमारी को गश आ गया। कवि ने फिर कहा- ”महाराज, आपके कथनानुसार राजकुमारी मेरी हो चुकी, अब जो चाहूं कर सकता हूं।” यह कहकर उसने युवक-कवि को अपने समीप बुलाया और कहा-
    ”मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह था कि राजकुमारी का प्रेम प्राप्त करूं। तुम नहीं जानते कि राजकुमारी की प्रसन्नता और सुख के लिए मैं अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार हूं। हां, युवक! तुम इनमें से किसी बात से परिचित नहीं हो; किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् तुमको ज्ञात हो जायेगा कि मैं ठीक कहता था या नहीं।”

    कवि की जुबान रुक गई, उसका स्वर भारी हो गया, सिलसिला जारी रखते हुए उसने कहा- ”क्या तुम जानते हो कि मैंने क्या देखा? नहीं। और इसका न जानना ही तुम्हारे लिए अच्छा है। सोचता था, जीवन सुख से व्यतीत होगा, परन्तु यह आशा भ्रमित सिध्द हुई। जिससे मुझे प्रेम है वह अपना हृदय किसी और को भेंट कर चुकी है। जानते हो अब राजकुमारी को मैं पाकर भी प्रसन्न न हो सकूंगा; क्योंकि राजकुमारी प्रसन्न न हो सकेगी। आओ, युवक आगे आओ! तुम्हें मुझसे घृणा हो तो, बेशक हुआ करे, आओ आज मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति तुम्हें सौंपता हूं।”

    राजकवि मौन हो गया। किन्तु उसका मौन क्षणिक था। सहसा उसने महाराज से कहा- ”महाराज, एक विनती है और वह यह कि मेरे स्थान पर इस युवक को राजकवि बनाया जाए।”
    राजकवि के कदम लड़खड़ाने लगे। देखते-देखते वह पृथ्वी पर आ रहा। अन्तिम बार पथराई हुई दृष्टि से उसने राजकुमारी की ओर देखा, यह दृष्टि अर्थमयी थी। वह राजकुमारी से कह रहा था- ”मेरी प्रसन्नता यही है कि तुम प्रसन्न रहो। विदा।”

    इसके पश्चात् कवि ने अपनी आंख बन्द कर लीं और ऐसी बन्द कीं कि फिर न खुलीं।

    Kavi-aur-Kavita


  • RUNAWAY – A Drama Short Film

    RUNAWAY – A Drama Short Film


    In a split second George is thrown into a nightmare. Now confronted with a choice, to stay or to run.

    Starring Jack Brett Anderson (WolfBlood) and Lucien Laviscount (Scream Queens, Honey Trap).

    Written and Directed by Tom Ruddock.

    RUNAWAY-A-Drama-Short-Film